यह गीत , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर ( गीत - संग्रह ) से लिया गया है -
साँस - साँस चलना भी दूभर अब !
गीत तुम्हें गा - गाकर हार गये !!
तुमको तो नहीं , किन्तु मधुवन को ,
भौरे ये रह - रह गुंजार गये !
गीत तुम्हें गा - गाकर हार गये !!
विरल - विरल बिरवे ये , दूरी पर
एक पाँति हुए , एक भाँती हुए ;
नदिया के ऊपर उस दिशि में वह
बना रहे नदी और भाप - धुँए ;
इसी तरह मिले विवश होकर तुम ,
जब - जब भी निंदिया के पार गये !
गीत - तुम्हें गा - गाकर हार गये !!
तरुण बतख संभल - संभल पग धरती ,
अंग - अंग में थिरकन - लचकन है ;
बगुला वह सेवारों पर बैठा ,
देने निज सपनों को जीवन है ;
कुछ कपोल फोनों के खम्भों पर
बैठे , जो पिया - देश तार गये !
गीत तुम्हें गा - गाकर हार गये !!
ढेरों ये स्वान - बैंजनी रंग के
आकों के फूल व्यर्थ खिलते हैं
झरबेरी के काँटों में उलझे ,
साड़ी के सूत व्यर्थ मिलते हैं ;
मधुऋतु बन खिला , सजा चन्दा बन ,
व्यर्थ सभी लेकिन सिंगार गये !
गीत तुम्हें गा - गाकर हार गये !!
अनजाने भ्रम की इन लहरों ने
आ - आकर मुझको भरमाया है ;
पेड़ों की बाँसुरियों ने बजकर
बरबस ही मन को भटकाया है ;
साँस - साँस चलना भी दूभर अब ,
प्राणों पर रख इतना भार गये !
गीत तुम्हें गा - गाकर हार गये !! **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर – 9414771867.
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना |
ReplyDeleteआपके द्वारा की गई सराहना हमारा मनोबल बढ़ाती है | आपको बहुत - बहुत धन्यवाद |
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