यह लघुकथा , पवन शर्मा की पुस्तक - " हम जहाँ हैं " ( लघुकथा - संग्रह ) से ली गई है -
उनके बीच
' गाँव क्यों छोड़ दिया था ? '
' क्या रखा था गाँव में ? ' अम्मा के गुजर जाने के बाद मकान ... खेत ... ट्यूबवेल सब - कुछ बैंक की नौकरी लगते ही बेच दिया | '
' अम्मा कब गुजरीं ? '
' तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही | ' वह थोड़ी देर के लिए रुका , ' तुम्हें पत्र भी तो लिखा था | '
' मुझे नहीं मिला था ... सचमुच | '
थोड़ी देर दोनों चुपचाप चलते रहे |
' इतने बड़े शहर में तुम कैसे रह पाती हो ...पता नहीं , किसके सहारे | '
' प्रतीक के सहारे | '
' प्रतीक ? '
' मेरा बच्चा | '
कहाँ है ? '
' बोर्डिंग में डाल दिया है | वहाँ उसकी देखभाल अच्छी तरह होती है | सन्डे को देख आती हूँ | '
' कितना कठोर ह्रदय है तुम्हारा ! '
इतने व्यस्त मार्ग में उन्हें जैसे किसी दूसरे की ख़बर तक न थी | सड़क के किनारे खड़ी हाथ ठिलिया में भुने हुए चने देखकर वह बोला , ' चने खाओगी ? '
' ले लो | ' उसने कहा |
वह दो रूपये के चने खरीदता है |
' लो खाओ | ' उसकी ओर चने बढ़ाते हुए वह बोला |
' तुम्हारी आदत अभी तक नहीं बदली | ' कहने के बाद उसके चेहरे पर हल्की मुस्कराहट तिर आई , फिर चने लेकर एक - एक दाना खाने लगी |
दोनों चने खाते हुए धीरे - धीरे चलने लगे |
' यहाँ कब ट्रांसफर हुआ तुम्हारा ? '
' पिछले माह | '
' फिर शिफ्ट कहाँ हो गए ? '
' कल्याण में | '
' रोज अप - डाउन करते हो चर्चगेट तक ? '
' करना ही पड़ता है | '
थोड़ी दूर दोनों शांत चलते हैं |
' तुम्हें देखकर मैं हैरान हो गई थी | '
' भूत नज़र आया मैं | ' कहकर वह हँसता है |
' इतने वर्षों बाद , लगभग अठारह वर्ष बाद तुम्हें देखा है न ... इसलिए | ' थोड़ी देर रूककर उसने फिर कहा , ' तुम्हारे कनखियों के बाल भी सफ़ेद हो गये हैं - पहचानना जरा मुश्किल हो गया था | '
' चार वर्ष साथ रहने के बाद भी , मैं तुम्हें देखते ही पहचान गया था | '
' तुम्हारे साथ बिताए चार वर्ष ही बेहद कष्टप्रद हैं मेरे लिए - आज भी |'
' क्यों ? '
उन दिनों को भूल नहीं पा रही मैं | '
चने खाते और बातें करते दोनों पैदल चले जा रहे थे | सड़क के किनारे बिजली के खम्भों पर लगे हैलोजन लैम्प जल उठे थे |
' तुम्हारे भीतर का अहं मुझसे जीत गया था | तुम्हारी उच्चाकांक्षाऍ जीत गईं थीं |तभी तो तुम मुझसे सहजता के साथ अलग होकर सतीश के पास चली गईं थीं | '
' उलाहना दे रहे हो मुझे | '
' कुछ भी समझ लो | हम - तुम एक साथ नहीं रह पाए | हमारे बीच रोज - रोज की कलह ... उफ़ ! '
वह चुप रही | कुछ झेलती रही |
' अच्छा हुआ कि तुम मुझे छोड़कर चली आईं | मैं तो तुम्हें कुछ भी नहीं दे सका | उस वक्त एक प्राइमरी स्कूल का मास्टर तुम्हें दे भी क्या सकता था ? '
' प्लीज राकेश | '
' तुम्हारा जाना ही मेरे लिए दृढ़संकल्प जैसा था | तभी तो मैं बैंक में प्रोंबेशनरी ऑफिसर के लिए सिलेक्ट हो सका | '
दोनों चलते हुए रुक गए |
' एक बात पूछूँ ? '
' पूछो | '
' मैं यह नहीं पूछूँगा कि सतीश ने तुम्हें क्यों छोड़ दिया , किन्तु इतना अवश्य पूछूँगा कि आखिर तुम्हें मिला क्या ? अठारह वर्ष के एकाकी जीवन में मैं आज तक यह नहीं समझ पाया काँति , कि मेरा प्रेम तुम्हें बाँधकर क्यों नहीं रख पाया ! '
वह फफक कर रो पड़ी |
' अब चलूँगा ... तुम्हारे साथ बिताए आज के तीन - साढ़े तीन घंटे मेरे लिए कीमती हैं | '
वह अब भी फफक - फफक कर रो रही थी | ***
- पवन शर्मा
पता -
श्री नंदलाल सूद शासकीय
उत्कृष्ट विद्यालय
जुन्नारदेव , जिला –
छिंदवाड़ा ( मध्यप्रदेश )
फोन नम्बर –
9425837079
Email – pawansharma7079@gmail.com
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर – 9414771867.
मेरी लघुकथा को प्रकाशित करने के लिए आभार सुनील जी.
ReplyDeleteआदरणीय पवन भाई , आपका इस ब्लॉग में हमेशा स्वागत है |
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
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