इसे , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " मेरी छोटी आँजुरी " ( दोहा - सतसई ) से लिया गया है | यह पुस्तक की भूमिका है -
मेरी छोटी आँजुरी
आस्थाओं का हिमवान
( भूमिका )
भाग - 1 में आपने पढ़ा -
पता न किन – किन पूर्वजों ,
से हम हैं मौजूद |
बोलो फिर कैसे कहें , ईश्वर
का न वजूद ||
‘ मेरी छोटी आँजुरी ’ सम्मुख
सिन्धु अपार |
ओ आकाशी देवता ! अर्ध्य करो
स्वीकार ||
इसी प्रकार द्वितीय भाग में प्रकरण 30 से अंत तक वर्तमान जीवन की विसंगतियों को रेखांकित किया गया है –
क्रमशः
भाग - 2
इसी प्रकार द्वितीय भाग में
प्रकरण 30 से अंत तक वर्तमान जीवन की विसंगतियों को रेखांकित किया गया है –
जनता का क्या है यहाँ ,
नेताओं को राज |
मांस गया ठठरी रही , जिसे
नौंचते बाज ||
गली मोहल्ले में रहे , जो कि
कभी बदनाम |
नैतिकता के वास्ते , उनको
मिला इनाम ||
सतसई के अंतिम प्रकरण में कवि ने अपनी
कुल गोत्र सहित व्यक्तिगत परिचय कुछ दोहों में दिया है | आरम्भ में आधुनिक लेखन की
लफ्फाजी और आलोचकों बदनीयती को ठेंगा दिखाते हुए कवि ने धड़ल्ले से मंगलाचरण किया
है | इसमें अपने इष्टदेवता और माता शारदा की वन्दना कर वरदान चाहा है –
पल – पल बढ़ते तिमिर में , हे
मेरे सुखधाम |
रागारुण अब तो करो , जीवन की
ये शाम ||
कल्मष हर हे माँ ! करो ,
शब्द अर्थ द्युतिमान |
सत् – शिव – सुन्दर भाव नव ,
नव अभिव्यक्ति अम्लान ||
आधुनिकता का दम्भ पालने वाले अनेक कवि
इस परम्परा को रुढ़ि मानकर छोड़ गये | श्रीकृष्ण शर्मा अपने समय की नब्ज पर हाथ रखे
हुए हैं , तो भी उन्होंने सच्चे ह्रदय से सूर और तुलसी जैसे महान कवियों में अपना
आदर्श खोजा है और निर्भय होकर परम्परा से अपना जुड़ाव सूचित किया है | कुछ आलोचक
भीरु कवि और लेखक अपने राष्ट्रीय सांस्कृतिक धर्म से विच्युत होते हैं , इससे
शर्मा जी चिन्तित नहीं हैं | इसलिए आशंकित मन से वे कह उठते हैं –
कविता सुरसरि सम बहे , पावन
औ’ कल्याणि |
अक्षर – अक्षर अमृत हो , हे
माँ वीणापाणि ||
आज हिन्दी का शिक्षित रचनाशील समाज
आमतौर पर दो वर्गों में बँटा हुआ है | पहला वह जो सम्पूर्ण अतीत के चिन्तन और
संस्कारों को निन्दनीय ठहराकर सिरे से ख़ारिज का दाता है अथवा पाश्चात्य चश्में से
उसे परखता है | और दूसरी ओर पूरी निष्ठा के साथ उनका अनुसरण करता है | इस बावत
मुझे हाल के ही एक प्रसंग का स्मरण हो आया है | मेरे आदरणीय मित्र प्रो.
देवेन्द्र शर्मा ‘ इन्द्र ’ इसके साक्षी हैं | हमारे सूर्यनगर आवास की निकट ही एक
मित्र के घर ‘ सांस्कृतिक जागरण मंच ’ की एक गोष्ठी में काव्य – पाठ का आयोजन था |
आरम्भिक काव्य – पाठ के अवसर पर जैसा कि चलन है मैंने एक कवि मित्र से वाणी वन्दना
करने का अनुरोध किया | तभी एक वरिष्ठ और जाने – माने लेखक महोदय तपाक से बोल उठे –
“ बहुत हो गया पूजा – पाठ | आप तो सीधे कविता सुनाइये | ” यह सुनकर सभी लोग
अचम्भित हुए | स्थिति की नाजुकता भाँप कर कविवर श्री ‘ इन्द्र ’ जी कहा – “ कोई
जरुरी नहीं कि ‘ या ... कुन्देन्दुतुषार हार धवला ... ’ से ही प्रारम्भ हो | आप जो
चाहें कविता पढ़ें , वाणी वन्दना हो जायेगी | ” सम्भवतः डॉ0 मिश्र को वाणी वन्दना
का कोई छन्द याद न आने से सीधे काव्यपाठ हुआ | ‘ सर्वोत्तम ’ पत्रिका के सम्पादक
की वरिष्ठता का लिहाज किया गया | कुछ बौद्धिकों की वाणी के प्रति अश्रद्धा व्यक्त
करना उनके विद्याप्रेम पर प्रश्न जरुर खड़े करता है |
‘ मेरी छोटी आँजुरी ’ कविवर श्रीकृष्ण शर्मा की निज और अपने युग की व्यथा – कथा है | हिन्दी के जातीय छन्द दोहा में यह भरपूर समा गयी है | यों कहें कि यह अपने युग - सत्य का प्रतिबिम्ब है और यह कई अर्थों में आज के कविता – जगत में फैली आपाधापी और भेड़चाल से बहुत कुछ अलग और सौम्य है | कविवर शर्मा जी एक ऐसे युग में कविता की बाँह थामे हुए हैं जबकि कविता के हत्यारे अपने आतंक से उसे जीने न देने के लिए कृतसंकल्प हैं | आज कविता के तथाकथित पैरोकारों ने ऐसे – ऐसे फतवे दिये हैं , जिनसे कविता की मूलभूत मान्यताएँ गहरे तक आघातित हुई हैं , और यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि साहित्य का वातावरण दूषित हो गया है | **
( आगे का , भाग – 3 में )
- डॉ0 योगेन्द्र गोस्वामी
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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