यह पीठिका , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " एक नदी कोलाहल " ( नवगीत - संग्रह ) से ली गई है -
पीठिका
“ गीत कविता का शाश्वत स्वरूप है |
उसकी देह को छन्द और प्राण को रस कहते हैं | अपने इसी स्वभाव के चलते गीत भारतीय
जन - मानस में बहुत गहराई तक रचा – बसा है और हमारी जीवन – शैली की तरह हमारे साथ
– पीढ़ी – दर – पीढ़ी चलता चला आ रहा है | “ – कैलाश गौतम | हिन्दी में छायावाद में
छायावाद और अंशतः प्रगतिवाद युग तक गीत को प्रतिष्ठा मिलती रही , किन्तु आयातित
अंग्रेजी कविता के अनुकरण पर आधारित ‘ प्रयोगवाद ’ के पुरस्कर्ता एवं आभिजात्य
संस्कारी अज्ञेय ने लगभग 1950 में और आगे चलकर उन्हीं के नक्शेकदम पर चलने वाले
डॉ0 नामवर सिंह ने एक निश्चित – सुनियोजित षड्यंत्र के तहत 1968 में ‘ गीत ’ को कविता
मानने से ही इन्कार कर दिया | उनका तर्क था कि ‘ गीत ’ एक आत्म – केन्द्रित और
आत्म – परक विद्या है , जिसने भाव – बोध को सीमित कर दिया है | यह भी कहा गया कि
गीत समकालीन महत्वपूर्ण सन्दर्भों और घटनाओं को स्वर देने में सक्षम नहीं है | आज
बौद्धिकता के युग में ह्रदय – पक्ष से काम नहीं चल सकता और चूँकि गीत में ह्रदय –
पक्ष की प्रधानता है इसलिए अब ‘ गीत ’ के दिन लद गये | इस प्रकार ‘ गीत ’ को कविता
के दायरे से बाहर ही नहीं किया अपितु यह सिलसिला गीत को ‘ मृत ’ घोषित कर छन्द –
विरोध तक चला गया | सत्ता और प्रकाशन – माध्यम में अपनी पैठ के बल पर कविता के
तथाकथित मठाधीशों द्वारा गीत और छान्दसिक रचनाओं को प्रकाशन और मूल्यांकन से
बहिष्कृत कर दिया गया | फलस्वरूप छन्दहीन होना ही कविता की एकमात्र शर्त मान ली
गयी |
निरपेक्ष जन – समर्थित और स्वीकृत गीत
व छान्दसिक रचनाओं पर डॉ0 नामवर सिंह द्वारा लगाये गये उपर्युक्त आरोप निराला और
परवर्ती नवगीतकारों के गीतों / नवगीतों के अवलोकन पर पूर्णतया निराधार और मनगढ़ंत
सिद्ध होते हैं क्योंकि उनमें भरपूर संवेदना , वैचारिक वस्तुपरक , समकालीन युग – बोध
और जनोन्मुखी प्रवृत्तियाँ पुष्कल मात्रा में दृष्टिगत होती हैं | इसके विपरीत “
नई कविता , संत्रास , कुण्ठा , मृत्यु – बोध , अजनबीपन , एबसड्रीटी आदि विडम्बनाओं
को उकेरने में इतनी उलझ गयी कि वह मनुष्य की जय – यात्रा में एक विसंगत हस्तक्षेप
लगने लगी ” – डॉ0 उमाशंकर तिवारी | उसमें शीघ्र ही एक प्रकार की रुढ़ि आ गयी और उसका
पैटर्न स्थिर हो गया | फलस्वरूप छान्दसिक अज्ञान होते हुए भी हर गली – कूँचे में धड़ल्ले
से ‘ नई कविता ’ के कवि खरपतवार की तरह उग आये | इसके अतिरिक्त छन्द और लय का
परित्याग कर देने से उसमें स्मरणीयता और पठनीयता नहीं रही | ‘ नयी कविता के प्रबल
पक्षधर डॉ0 केदारनाथ सिंह ने इस तथ्य को स्वीकार भी किया है – “ छन्दमुक्त होकर
कविता ने लय की विविधता खोयी , संयम व कौशल गँवा दिया है | ” परिणामस्वरूप भारतीय
काव्य – परम्परा से पूरी तरह कटी और छन्द को छोड़ने व जीवन की सहज लय को अनसुनी कर
पूर्णरूपेण गद्य में तब्दील होती ‘
समकालीन कविता ’ का प्रेषणीयता , प्रभावान्विति व स्मरणीयता के अभाव में समाज से
सम्बन्ध टूट गया और वह जन – मानस द्वारा नकार दी गयी | इसके विपरीत गीत / नवगीत को
आज भी जन – सामान्य की स्वीकृति और दुलार प्राप्त है |
स्वतंत्रता के पश्चात भारत की राजनैतिक
, सामाजिक और आर्थिक परिस्थियों में आये बदलावों के फलस्वरूप छायावादोत्तर गीत के
कथ्य , स्वरुप और आकार में भी 1964 से बड़े परिवर्तन हुए हैं | इन वैचारिक और
शैलीगत परिवर्तनों को रेखांकित करने के उद्देश्य से राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 1958
में ‘ गीतांगिनी ’ में पहली बार इन गीतों के लिए ‘ नवगीत ’ शब्द का प्रयोग किया |
1959 में प्रकाशित ठाकुर प्रसाद सिंह के ‘ वंशी और मादल ’ ने नवगीत के प्रथम
संग्रह के रूप में ख्याति अर्जित की और अपनी आंचलिक चेतना से परवर्ती गीतकारों को
प्रभावित और प्रेरित किया | किन्तु 1964 में ...**
( इससे आगे का , भाग – 2 में )
- श्रीकृष्ण शर्मा
संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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