यह पीठिका , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक * " एक नदी कोलाहल " ( नवगीत - संग्रह ) से ली गई है -
पीठिका
नवगीत ने भाषा को एक नया
मुहावरा दिया है | उसकी भाषा में हिन्दी की लोक बोलियों से लेकर इतर भाषाओं तक से
लिए गए शब्द मिलते हैं , जिनसे भाषा की ताकत बढ़ी है , वह सम्पन्न और विलक्षण हुई
है तथा भाषा का नया सौन्दर्य शास्त्र नवगीत ने रचा है | ...
( भाग – 4 )
उसकी भाषा बिम्बात्मक और
ध्वनि – प्रधान है | क्रियापदों से अधिक विश्लेषण हैं | इसलिए ऐन्द्रिय संवेदनों
को व्यक्त करने में भाषा अधिक सम्पन्न है | सहज भाषा की कसी हुई बुनावट है |
प्रतीकों और मुहावरों के प्रयोग ने भाषा को सांकेतिक बनाया है वह सहज , सुबोध और
लोकोन्मुखी है |
नवगीत में कहन अधिक सहज हुई है | उसमें
अनेक ध्वनियाँ और दृष्टि हैं | वह अपनी काव्य – परम्परा से विकसित होकर पाठक की
स्मृति , अनुभव व ज्ञान के माध्यम से सम्प्रेषित होता है | उसका एक और लक्षण “
नाटकीय प्रस्तुती शैली है | कविता के रूप में उसका यह नाटकीय आज सहज वार्तालाप या
बातचीत में बदल गया है | ” – कुमार रविन्द्र | किस्सागोई जैसा बतियाने का
यह तरीका गीतों में नया ही है , जो किस्से – कहानी की वाचक परम्परा से जुड़ा हुआ है
|
यहाँ यह लिखना आवश्यक प्रतीत होता है
कि शिल्प जब अपनी स्वाभाविक और लय खो देता है तो अपठनीय लगने लगता है | इसलिए
प्रतीकों और बिम्बों का अत्यधिक आग्रह , कलात्मक पेचीदगी और दूरारुढ़ कल्पनाओं के
प्रयोग से नवगीतकार को बचना चाहिए क्योंकि गीत का सच्चा आनन्द उसके भीतर ध्वनित
होने वाले अर्थ – बोध और उस अर्थ की संगीत में है और फिर रसमयता तो सहजता में ही
सम्भव है |
संक्षेप में कहा जा सकता है कि ‘ नवगीत
’ ने कथ्य और शिल्प के स्तर पर अपनी अलग पहचान बनायी है | वह जहाँ वर्तमान का
प्रामाणिक दस्तावेज है , वही वह भविष्योन्मुख बने रहने के लिए कृत – संकल्प और सतत
संघर्ष – रत भी है |
अब कुछ अपनी इस सर्जना के सम्बन्ध में
कहना चाहूँगा | मैं 1947 – 48 में लेखन से जुड़ा | शुरू में मैंने गीत ही लिखे –
गद्य बहुत कम कभी – कभार ही | पता नहीं कौन – सी प्रेरणा जागती थी कि लिखने लग
जाता था | यह अवश्य था कि ग़रीबी , दुःख , अभाव , अकेलापन , असफलता , निराशा आदि
ऐसी बातें थीं , जो कचोटती रहती थीं , किन्तु काव्य – कला – विषयक कोई जानकारी
नहीं थी मुझे | महादेवी , पन्त , निराला , प्रसाद , मैथिलीशरण गुप्त , बच्चन ,
दिनकर , सुमन आदि की कविताएँ सामान्य रूप से पढ़ी थीं | पढ़ने का शौक बचपन से ही था |
रामायण , महाभारत , आल्हा , क़िस्से , कहानी , उपन्यास आदि जो भी मिले , पढ़े ज़रूर |
1954 तक इधर – उधर से खूब पढ़ा , किन्तु फिर यह सिलसिला टूट गया |
1950 से कुछ बोध हुआ | भैया जगत प्रकाश
चतुर्वेदी मेरे सहपाठी बने | वे अच्छे गीतकार थे | उन्होंने मेरी प्रारम्भिक
रचनाओं को सुधारा | 1952 से साहित्यिक पत्र – पत्रिकाओं में छपना शुरू हुआ | 1954
में ‘ धर्मयुग ’ में प्रकाशित रचना से व्यापक पहचान मिली | 1960 तक मैं खूब छपता
रहा | बाद में बढ़ती पारिवारिक जिम्मेदारियों , आर्थिक विवशताओं , सेवाकालीन
व्यस्तताओं , स्थानिक असुविधाओं और वैयक्तिक परिस्थितियों की विपरीतताओं के चलते
1961 से 1984 तक प्रकाशन जगत से मेरा सम्बन्ध लगभग विछिन्न रहा | देवेन्द्र जी
आशंकित थे कि कहीं मैंने लिखना तो बन्द नहीं कर दिया | इसलिए वे बार – बार लिखते
रहे कि मैं लिखना बन्द न करूँ और अपनी पूर्व – लिखित रचनाओं को पत्र – पत्रिकाओं
में प्रकाशनार्थ भेजता रहूँ | मैं कृतज्ञ हूँ अभिन्न बन्धु पं0 देवेन्द्र शर्मा ‘
इन्द्र ’ के प्रति कि उनकी प्रेरणा से ही 1986 में पत्र – पत्रिकाओं से मेरा पुनः
जुड़ाव हुआ | **
( इससे आगे का , भाग – 5 में पढ़ें )
- श्रीकृष्ण
शर्मा
संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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