इसे श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर " ( गीत - संग्रह ) से लिया गया है -
“ते हि नो दिवसाः गताः” और “फागुन के हस्ताक्षर”
अवशता और दुर्व्यवस्था के
चौराहे पर खड़ा आम आदमी लुटता रहा , कहाँ जाये , किससे गुहार करे अपने बचाव के लिए |
देखिए इस विडम्बना को श्रीकृष्ण किस तरह वाणी देते हैं –
( भाग – 7 )
भोर का पीकर जहर अब चाँदनी
की
देह नीली पड़ रही है |
00
रात के अपराध पर अब तारिकाएँ
आत्महत्या कर रही हैं | ( चाँदनी की देह )
अथवा –
उजियारा गिरा
थका – हारा |
चलता दिन थमा ,
हवा सुट्ट खड़ी ,
भुच्च अँधेरे की
वह धौल पड़ी ,
टूट गया ,
हाथों से पारा |
उजियारा गिरा
किरचों – किरचों
चुप्पी बिखरी ,
शातिर सन्नाटे की
ठकुराइस पसरी ,
पर ढिबरी धुंधलाती ,
आँखों ले भिनसारा |
उजियारा गिरा
( चलता दिन थमा )
श्रीकृष्ण शर्मा ने इन गीतों को लिखते
समय ज़िन्दगी को ऋतुओं के माध्यम से देखा है | वर्षा उन्हें विशेष रूप से आकर्षित
करती है | ‘ सावन – धन ’ , ‘ ये बदरा ’ , ‘ झिनपिन – झिनपिन ’ , ‘ कालिदास की
आर्द्रव्यथा ’ , ‘ गीले क्षण ’ , ‘ धारासार बरसते बादलों को देखकर ’ और ‘ टप – टप
– टप ’ शीर्षक गीत इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं | नवगीत में आमतौर से वर्षा की
अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु ने रचनाकारों को अधिक आकृष्ट किया है क्योंकि धूप जीवन संघर्ष
का सर्वाधिक ज्वलन्त प्रतीक होती है | ‘ वर्षान्त के बिन बरसे बादलों को देखकर ’ ,
‘ तार – तार छाया की चुनरी ’ , ‘ टेसुई बादल पड़े काले ’ , ‘ कहाँ अब वह गुलाबी भौर
’ , ‘ ग्रीष्म की दोपहर ’ शीर्षक गीतों में कवि ने हार न मानने वाली जिजीविषा को
बड़े सहज स्वाभाविक ढंग से रेखांकित किया है | उन्हें केवल ऋतु वर्णन के गीत कह कर
नहीं टाला जा सकता | प्राकृतिक परिवेश के साथ शर्माजी का लगाव प्रारम्भ से ही रहा
है | यथार्थ की भांति इनकी सर्जनात्मक कल्पना भी प्रकृति से ही सह्जोत्थित कही जा
सकती है | एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है –
“ इसी झील के तट पर पेड़ गगन
है वट का ,
काला बादल चमगादड़ – सा उल्टा
लटका ;
शंख – सीप नक्षत्र रेत में –
हैं पारे से –
साँझ – सुबह के मध्य अवस्थित
झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारे से | ”
( झील रात
की )
श्रीकृष्ण शर्मा के गीतों की भाषा उनके
सरल – सहज व्यक्तित्व की भांति आम बोलचाल की है | उसमें यदि एक ओर ‘ सुट्ट ’ , ‘
भुच्च ’ , ‘ धौल ’ , ‘ ढिबरी ’ , ‘ बखेड़े ’ , ‘ ठकुराइस ’ , ‘ गैले ’ , और ‘ भिनसारा
’ जैसे देशज शब्दों की बहुलता है तो ‘ ब्लैक होल ‘ , ‘ बाथरूम ’ , जैसे अंग्रेजी
और ‘ जहर ’ , ‘ शातिर ’ , ‘ इबारत ’ , ‘ खुशहाली ’ , ‘ काफ़िल ’ , ‘ मजबूरी ’ , ‘
किस्मत ’ , ‘ तकलीफ ’ , ‘ हिम्मत ’ , ‘ आदम ’ , ‘ गिला ’ , ‘ गुजरान ’ , और ‘
तन्हाईयाँ ’ जैसे ढेरों उर्दू – फ़ारसी के शब्द रिल – मिल गये हैं | इसका यह अर्थ
भी नहीं है कि श्रीकृष्ण के काव्य – शिल्प का झुकाव अभिधा की ओर उन्मुख है | बिम्ब
– योजना की दृष्टि से उनके गीत अत्यन्त समृद्ध हैं | इन गीतों में ‘ अँधियारे में
भटके हुए दिन के पाँव ’ , ‘ ठंडे पड़ते स्पर्श ’ , ‘ मरी हुई ध्वनियाँ ’ , कुण्ठाओं
के सपने जैसे खिले कमल ’ , रात के अपराध पर आत्महत्या करती हुई तारिकाएँ ’ और ‘
चमगादड़ की तरह उल्टा लटका हुआ बादल ’ जैसे राशि – राशि बहुविध बिम्बों की योजना
विद्यमान है |
पिछले दिनों जिस प्रकार छ्न्दोमुक्त
नयी कविता लिखने की बाढ़ आयी थी , ***
( इससे आगे , भाग – 8 में पढ़िए )
- देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र '
--------------------------------------------------------------------------------------------------संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
बहुत बहुत सुन्दर रचना । विवरण प्रस्तुति के लिए ह्रदय से आभार ।
ReplyDeleteआपको अच्छा लगा यह जानकार बहुत अच्छा लगा | इसके लिए आपको बहुत - बहुत धन्यवाद आदरणीय आलोक सिन्हा जी |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना , सरल सहज चित्रण चलता दिन जब थका, सुन्दर विवेचना भी
ReplyDeleteबहुत - बहुत धन्यवाद , आदरणीय सुरेन्द्र कुमार शुक्ला जी |
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