“ ते हि नो दिवसाः गताः ” और “ फागुन के हस्ताक्षर ”
... “ जीवन के कटु और कठोर
यथार्थ को मैंने प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं , भोग भी है | अपनी उन्हीं संवेदनात्मक
अनुभूतियों को सहज और सरल भाव से मैं अपने गीतों में पिरोता रहा हूँ | ”
( भाग – 6 )
श्रीकृष्ण ने परोक्ष रीति
से नवगीत पर भी अपनी टिप्पणी इन शब्दों में व्यक्त की है – “ नई कविता के
झंडाबरदारों ने गीत की कभी मृत्यु की घोषणा की थी , किन्तु गीत आज भी अपनी पूर्ण
त्वरा के साथ मौजूद है और जब तक पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व है , उसके मन में
भावनाएँ और संवेदनाएँ हैं , तब तक गीत मर नहीं सकता | हाँ . समय के साथ उसके
रूपाकार में परिवर्तन होता रहा है , भविष्य में भी होगा , किन्तु गीतात्मकता उसका
मूल स्वर है जो सदैव रहना है | वायवी कल्पना – लोक से निकल कर वह जीवन के निकट आया
है , आम आदमी के दुःख – दर्द को उसने अपनाया है और उसके सरोकारों को वाणी दी है |
आधुनिक भाव – बोध के साथ सटीक ऐन्द्रिय बिम्बों और जीवन प्रतीकों ने गीत को एक नई
एषणा , एक नई आभा दी है | नयी कविता के समानांतर गीत के इस स्वरुप को ‘ नवगीत ’
कहा जा रहा है | किन्तु नाम में क्या रखा है | ‘ गीत ’ को किसी भी संज्ञा से
अभिहित किया जाये , ‘ गीत ’ अन्ततः ‘ गीत ’ ही है | ” जब हम इन गीतों से गुज़रते
हैं तब इसी निष्कर्ष पर पहुँचते है कि श्रीकृष्ण की कथनी और करनी ( विचार औए
अभिव्यक्ति ) में एकरूपता रही है | उन्होंने जो जिया और भोग है , उसी को गाया है |
जैसे सादगी और सरलता उनके व्यक्तित्व में लक्षित होती है , वैसी ही उनके गीतों की
अकृत्रिम कला में भी | शिल्प उनकी कला में ‘ साध्य ’ बन कर नहीं अपितु ‘ साधन ’ बन
कर प्रस्तुत होता है | ऐसी स्थिति में उनके गीतों को कोई ‘ गीत ’ , नवगीत ’ अथवा ‘
गीत – नवान्तर ’ जो कुछ भी विशेषण दें , उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी | मैं अपनी
सूझ , समझ और सुविधा के लिए इन गीतों को ‘ नवगीत ’ ही कहना चाहूँगा |
साँझ की उदासी में आम आदमी दिनभर के
संघर्ष के बाद थक – टूट कर अकेला पड़ जाता है | सारे दिन की भाग – दौड़ के पश्चात् लेखा
– जोखा करने पर उसे महसूस होता है कि और दिनों की तरह आज का दिन भी घाटे का खेल
खेलते हुए गुजर गया | जो उत्साह , उल्लास और सक्रियता सुबह – सुबह अनुभव हुई थी ,
वह सब रोजी – रोटी की जुगाड़ करने में छीज गयी , जैसी समूची प्राण – शक्ति ही निचुड़
गयी हो | इस रिक्तता और व्यर्थता – बोध को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं –
सूरज ने मुझको फिर धुंधलाता
छोड़ दिया |
सूर्यमुखी मेरा फिर मुरझाता
छोड़ दिया ||
00
आह , सिर्फ़ जीवित हैं बोझिली
साँसें भर ,
जगा रहा अस्थिर मन प्रेत –
सा प्रतीक्षाएँ ;
शेष सभी जो कुछ था रात ने
निचोड़ लिया |
(
अवशिष्ट )
स्वतंत्र होने पर आम आदमी ने खुशहाली
के जो सपने देखे थे , वे बढ़ते हुए शोषण , भ्रष्टाचार नेतृवर्ग के मिथ्या आश्वासनों
और पंचवर्षीय विकासात्मक योजनाओं के खोखलेपन और पूँजीवाद के आसुरी आघात ने चूर –
चूर कर दिये | विपन्न व्यक्ति और विपन्न हो गया तथा जो सम्पन्न था वह सम्पन्न्तर
होता चला गया | अवशता और दुर्व्यवस्था के चौराहे पर खड़ा आम आदमी लुटता रहा , कहाँ
जाये , किससे गुहार करे अपने बचाव के लिए | देखिए इस विडम्बना को श्रीकृष्ण किस
तरह वाणी देते हैं - **
( आगे का भाग , भाग – 7 में
पढ़िए )
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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