“ ते हि नो दिवसाः गताः ” और “ फागुन के हस्ताक्षर ”
मेरी शुरू से ही यह
आकांक्षा रही है कि मेरे अपने गीत – संग्रहों के साथ – साथ मेरे उन आत्मीय गीतकार
बन्धुओं के संकलन भी समय – समय पर निकलते रहें जिन्होनें विगत आधी शताब्दी में हिन्दी
गीत को नये – से – नये आयाम प्रदान करते हुए गीत – रचना की परम्परा को समृद्ध किया
है |
( भाग – 5 )
मुझे सन्तोष है कि भाई जगत प्रकाश
और सुखराम सिंह चौधरी की तरह श्रीकृष्ण ने भी मेरी इस आकांक्षा को मूर्त रूप दिया
है ; ‘ अतीत से बाहर आते हुए ’ नाम से इन गीतों की पांडुलिपि श्रीकृष्ण जी ने दो
वर्ष पूर्व प्रकाशनार्थ भेजी थी , किन्तु इसे मैं अपना दुर्भाग्य कहूँगा कि अनेक
विघ्नों और प्रतिकूल परिस्थितियों के वशीभूत प्रकाशन का स्वप्न साकार नहीं हो पाया
; जिस प्रकाशक को पांडुलिपि दी गई थी , सहसा ही वह अज्ञातवास में चला गया | मूल
पांडुलिपि और मेरे द्वारा इन गीतों पर लिखी भूमिका भी उससे वापस नहीं मिल सकी |
सौभाग्य की बात यही है कि उस पांडुलिपि की एक कम्प्यूटराइज्ड प्रति मेरे पास थी ,
जिसके आधार पर मैंने यह नयी भूमिका दूसरी बार लिखने का दुसाहस किया है और
श्रीकृष्ण जी के व्यक्तिगत अनुरोध पर इसका नामकरण किया है ‘ फागुन के हस्ताक्षर ’ के
रूप में | यह नया नाम कदाचित् श्रीकृष्ण जी और उनके गीतों के पाठकों को भी रुचिकर
प्रतीत होगा क्योंकि इसका पूर्ववर्ती नाम ऐसा भ्रम उत्पन्न करता था कि यह कोई नई
कविता का संग्रह हो |
‘ फागुन के हस्ताक्षर ’ श्रीकृष्ण जी
के अनुसार गीत – संग्रह है , जिसमें सन 1965 तक लिखे गये गीतों में से 44 गीत और ‘
अम्मा ’ शीर्षक ( ‘ निराला ’ कृत ‘ सरोज स्मृति ’ की परम्परा में ) एक लम्बी शोक –
गीतिका को चयनित किया गया है | इन गीतों का चयन करते समय उन्होंने 1965 तक ही
परिसीमित क्यों रखा , इसका कारण तो वही जानते होंगे | जहाँ तक मेरी कल्पना है ओम
प्रभाकर ने सन 1964 में “ कविता 64 ” के रूप में ‘ लहर ’ के एक अंक का सम्पादन
किया था , जिसमें औपचारिक रूप से ‘ नवगीत ’ पर विशद चर्चा – परिचर्चा की गयी थी ,
यद्यपि श्री राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा ‘ गीतांगिनी ’ में ‘ नवगीत ’ संज्ञा का
प्रयोग इससे भी कई वर्ष पहले किया जा चुका था | जब मैंने शर्मा जी के इन गीतों को
पढ़ा तो मुझे इनमें से अधिकांश में नवगीत की अनेक विशिष्टताएँ झाँकती हुई दृष्टिगत
हुईं | लेकिन जैसा कि ‘ ताज की छाया में ’ नामक समवेत कविता – संग्रह में अपने
वक्तव्य में श्रीकृष्ण ने कहा था कि वे गद्य लेखन से परहेज करते हैं , शायद इसीलिए
उन्होंने गीत , नवगीत और अपनी एतद् विषयक रचनाओं के समर्थन अथवा विरोध में कुछ भी
नहीं लिखा | उन्होंने कभी यह आग्रहपूर्वक नहीं कहा कि उन्हें कोई नवगीतकार माने और
उनके गीतों को ‘ नवगीत ’ की संज्ञा दे | फिर भी सूत्रतः उन्होंने गीत और नवगीत पर
टिपण्णी करते हुए लिखा है – “ गीत वस्तुतः गहन भावानुभूति की रसात्मक अभिव्यक्ति
है | ये द्रवणशील रागात्मकता का आलौकिक प्रस्फुटन है | ” ... “ जीवन दर्द से जन्मा
है और जीवन भर दुःख और दर्द के इर्द – गिर्द ही रहता है , जिसमें कभी – कभार सुख
की क्षणिक अनुभूति होती है | मेरा अपना जीवन भी इससे भिन्न नहीं रहा | प्रकारान्तर
से अब तक की जीवन – यात्रा पीड़ा , अभाव , निराशा , विषाद , घुटन , टूटन , कुण्ठा
और संत्रास की ही कहानी है | ” ... “ जीवन के कटु और कठोर यथार्थ को मैंने
प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं , भोग भी है | अपनी उन्हीं संवेदनात्मक अनुभूतियों को
सहज और सरल भाव से मैं अपने गीतों में पिरोता रहा हूँ | ” **
( इससे आगे का भाग , भाग –
6 में पढ़ें )
- देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र '
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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