श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर " से लिया गया है -
“ते हि नो दिवसाः गताः” और “फागुन के हस्ताक्षर”
...उनके व्यवहार में कुछ ऐसी आत्मीयता , सरलता , निश्छलता और मर्मस्पर्शी भावुकता है जो अपने रस – चक्र में जिस व्यक्ति को एक बार बाँध लेती है , वह जीवन भर के लिए उनका अभिन्न होकर रह जाता है | ...
( भाग – 3 )
उनके व्यवहार में कुछ ऐसी
आत्मीयता , सरलता , निश्छलता और मर्मस्पर्शी भावुकता है जो अपने रस – चक्र में जिस
व्यक्ति को एक बार बाँध लेती है , वह जीवन भर के लिए उनका अभिन्न होकर रह जाता है |
वेदना , पीड़ा , अभाव और विविध प्रकार की यातना – यंत्रणाओं की आँच में तपाकर
उन्होंने अपने आचरण को स्पृहणीय और अनुकरणीय बनाया है | उनके अन्तर्मन में करुणा
की जो निर्मल – शीतल स्रोतस्विनी प्रति पल प्रवाहित होती रहती है , वह अपने
संस्पर्श मेरे जैसे न जाने कितने दुःख – दग्ध व्यक्तियों को अभिषिक्त नहीं करती ?
सर्वश्री जगतप्रकाश चतुर्वेदी , सोम ठाकुर , चौधरी सुखराम सिंह , गोकुल चन्द्र
अग्रवाल और मुझ सरीखे कतिपय व्यक्तियों को लेकर जैसी गीत – पुष्पान्जलियों की रचना
श्रीकृष्ण शर्मा ने की है , वैसी हममें से कितने कर सकते हैं ? यह वही कर पाता है ,
जिसका ह्रदय आकाश – सा विस्तृत , समुद्र – सा गंभीर , धरती – सा सहिष्णु , हिमवान
– सा द्रवणशील और विन्ध्याचल – सा दृढ़ और उदार तथा उदात्त हो | काश हमने उनकी इन ‘
स्टर्लिंग केरेक्टरिस्टिक्स ’ को स्वायत्त किया होता ! ऊँचे – से – ऊँचे स्तर की
प्रतिभा और कला के स्वामी होकर भी हम पारस्परिक प्रतिस्पर्धा और अकारण विद्वेष का
दम्भ पालते हुए एक – दूसरे को अस्वीकारते – नकारते रहे | इस दृष्टी से भाई
श्रीकृष्ण शर्मा अजातशत्रु हैं | उनकी यह अजातशत्रुता प्रणम्य और नन्दनीय –
वन्दनीय है |
1958 में जब ‘ ताज की छाया में ’
शीर्षक कविता – संग्रह का हम लोगों ने संपादन किया था तब उन्होंने अपना व्यक्तित्व
एवं काव्यगत परिचय देते हुए लिखा – “ बचपन में ही पिताजी का स्वर्गवास हो गया था
इस लिए माँ ने बड़े कष्ट उठाकर इस योग्य किया कि जीविका कमा सकूँ | पढ़ाई के नाम पर
इण्टर हूँ | क्लर्क , टाइपिस्ट , लाइब्रेरियन , प्रूफरीडर आदि रहने के बाद इस समय
शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश के अन्तर्गत भोपाल के एक गाँव साँचेत में अध्यापक हूँ |
गद्य कतई नहीं लिखा , पता नहीं कविता कैसे लिखने लग गया हूँ | कविताओं का अविकल
प्रवाह सन 50 से आरम्भ होता है और अब तक लगभग ढाई सौ कविताएँ लिखी हैं , जिनमें
गीत अधिक हैं | सर्वप्रथम गीत ‘ धर्मयुग ’ साप्ताहिक के 29 अगस्त ’54 अंक में
प्रकाशित हुआ था | तब से हिन्दी की प्रमुख पत्र – पत्रिकाओं में जब – तब कविताएँ
प्रकाशित होती ही रहती हैं | ” इन
पंक्तियाँ को उद्घृत करते समय मेरी मंशा यही बताने की रही है कि श्रीकृष्ण ने अपने
जीवन को कल्पना के पंख फैलाकर उड़ने की अपेक्षा अभावों के कंकरीले – पथरीले रास्तों
पर नंगे पाँव धूप में जल कर और चल कर जिया है , कि उनका भाव – जगत पल – पल पर अभावों
से आहत और क्षत – विक्षत रहा है , कि वे मूलतः गीतात्मक संवेदना के रचनाकार हैं ,
कि उनकी प्रारम्भिक साहित्यिक पहचान ‘ धर्मयुग ’ जैसे अखिल भारतीय लोकप्रियता और
स्वीकृतिप्राप्त पत्र के माध्यम से हुई थी | उन दिनों ‘ धर्मयुग ’ छपना सर्वोत्कृष्ट
साहित्यिक निकष माना जाता था |
पिछले 45 वर्षों में देश और दुनियाँ
में जहाँ तरह – तरह के युगान्त और युगान्तकारी परिवर्तन हुए , वहाँ श्रीकृष्ण के
निजि जीवन में भी कई मोड़ आये | आज वे एक एम. ए. , बी. एड. किये , उच्चतर माध्यमिक
विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं | वे एक भरे पूरे परिवार के ज्येष्ठ –
प्रमुख हैं | अपने बेटे – बेटियों की शिक्षा – दीक्षा और शादी – विवाह के
दायित्वों का उन्होंने यथाविध परिपालन किया है | लखनऊ स्थित छोटी विधवा बहन के
पारिवारिक योग – क्षेम का वहन भी वे तत्पर भाव से करते हैं | जिला छिन्दवाड़ा के
अन्तर्गत जुन्नारदेव कस्बे में उन्होंने अपनी स्थायी – आवास व्यवस्था भी कर ली है |
इतना ही नहीं , … **
( आगे का , भाग – 4 अवश्य पढ़ें )
- देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र '
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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