यह कहानी पवन शर्मा की पुस्तक - " ये शहर है , साहब ! " से ली गई है -
सिगरेट के बुझे हुए टुकड़े
वो जुलाई की कोई एक रात थी – धीमी –
धीमी बौछारों वाली |
हम लोग टॉकीज से बाहर निकलकर सड़क पर
पैदल ही चल पड़े | जब हम पिक्चर देख रहे थे , उस बीच तेज बारिश हो गई थी | अब बारिश
बंद है , कितु वातावरण में ठण्डक है | लगभग साढ़े नौ का समय हो रहा है | बारिश की वजह
से सड़क के दोनों ओर की दुकानें बन्द हो चुकी हैं | कुछ होटल और पान के ठेले खुले
हुए हैं | वहीँ पर रिक्शेवाले अपने रिक्शों को सड़क के किनारे खड़ा करके भीगे हुए
खड़े हैं | उनकी आँखें सवारियों को तलाश कर रही हैं |
“ सिगरेट निकाल | ” साथ चलते नरेश ने मुझसे कहा |
मैनें शर्ट की जेब से सिगरेट का पैकिट
निकालकर नरेश को दे दिया | उसने पैकिट में से एक सिगरेट निकालकर सुलगाई और हलक से
ढेर सारा कसैला धुआँ उगल दिया |
“ तू नहीं लेगा | ” नरेश ने सिगरेट का पैकिट मुझे लौटते हुए पूछा|
“ नहीं “ गले में खराश होने लगती है |
” मैं सिगरेट का पैकिट शर्ट की जेब में
रखने के बाद बोला |
पिक्चर छूटने की वजह से सड़क पर भीड़ है |
वातावरण बारिश का था , इसलिए सब जल्दी – से जल्दी घर पहुँचना चाहते थे | हमें कोई
जल्दी नहीं थी , अतः हम दोनों टहलते हुए गीली सड़क पर पैदल ही चल रहे थे |
चौराहा आ गया | चौराहे पर भीड़ नहीं है |
अधिकांश दुकानें बंद हैं , जो भी दुकानें खुली हुई हैं , उनमें इक्का – दुक्का लोग
बैठे हुए आपस में बतिया रहे हैं | मैनें एक पान ठेले से सिगरेट का एक पैकिट लिया
और दाईं ओर जाने वाली सड़क पर नरेश के साथ मुड़ गया | ये सड़क लगभग डेढ़ फर्लांग तक
सीधी जाती है , फिर बाईं ओर मुड़ जाती है |
हम लोग जरा आगे निकले कि सड़क सूनसान थी
| सड़क के किनारे बिजली के खम्भों पर लगे बल्ब जल रहे थे | हम जब किसी बिजली के
खम्भे के निकट पहुँचने लगते , तब खम्भे पर जलते बल्ब के प्रकाश में हमारी परछाईयां
पीछे की ओर लम्बी से छोटी होती जातीं और जब हम उसके पास से गुजर जाते , तब हमारी
परछाईयां सामने की ओर छोटी से लम्बी होती जातीं |
नरेश चुप है और सिगरेट के कश ले रहा है
|
“ तूने बताया नहीं कि तेरा आना कैसे
हुआ ? ” मैंने नरेश से फिर पूछा |
नरेश ने फिर कोई जवाब नहीं दिया | बस ,
उसने सिर घुमाकर मेरी ओर देखा |हम बिजली के दो खम्भों के बीच चल रहे थे , इसलिए
अँधेरा होने की वजह स्व मैं ये अनुमान नहीं लगा पाया कि उसके चेहरे पर मेरे प्रश्न
की क्या प्रतिक्रिया थी ? बावजूद इसके उसने कहा, “तुझसे बहुत दिनों बाद मुलाकात
हुई|”
“ सो तो है | तुझे अचानक सामने पाकर
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था|” मैंने कहा |
अभी हम चौराहे से आधा फर्लांग ही आये
हैं | सड़क बारिश से भीगी हुई है | जिसकी वजह से सड़क दूर तक चमक रही है – बिजली के
प्रकाश में | सामने से मारुति आ रही है , जिसकी हेड लाइट्स हमारी आँखें चौधियाने
लगीं | थोड़ी देर बाद मारुति हमारे सामने से गुजर गई |
नरेश ने कश लेकर सिगरेट फेंक दी और पैंट
की जेब में अपने दोनों हाथ डाल लिए |
कॉलेज में हम दोनों साथ ही पढ़ते थे |
मैं उसके सामने पढ़ाई में हमेशा पीछे रहा | ग्रेजुएशन के बाद नरेश ने एम. एस. – सी.
तथा मैंने एम.ए. किया था | फिर हमारी नौकरी के लिए भागदौड़ शुरू हुई | दो वर्ष तक
हमें कहीं भी सफलता नहीं मिली | अपने पिताजी के आकस्मिक निधन के बाद मैं आदिवासी
विकास विभाग में क्लर्क हो गया | ये बात लगभग चार वर्ष पहले की है | तब नरेश ने
गाँव नहीं छोड़ा था | अब भी गाँव में ही है |
किन्तु , आज चार वर्ष के बाद मेरी नरेश
से मुलाकात हुई है | सुबह नरेश मेरे पास आया और आते ही बोला , “ पहचाना मुझे ? ”
तब एकाएक पहचानने में मुझे दिक्कत हुई , पर थोड़ी देर बाद मैं उसे पहचान गया था |
हम लोग सड़क पर चुपचाप चल रहे हैं |
नरेश जब से आया है , तब से चुप – चुप है | पिक्चर हॉल में भी उसने चुप्पी साध रखी
थी | उसकी चुप्पी मुझे असहनीय लग रही है |
“ तू चुप क्यों है ? ” मैंने पूछा |
“ क्या कहूँ | ” संक्षिप्त उत्तर दिया
उसने |
“ कॉलेज में तो तू बहुत बातूनी था | ”
अबकी बार वह हो – हो करके हँस पड़ा ,
फिर बोला , “ तब की बात अलग थी | ”
“ और अब ? ” मैं उसे बातों में उलझाये
रखना चाहता था , ताकि रास्ता कट सके |
“ अब परिस्थितयाँ बदल चुकी हैं | ” कहकर
नरेश ने पैंट की जेब में से अपने दोनों हाथ बाहर निकाल लिए |
हवा के साथ फिर से तिरछी बौछारें शुरू
हो गईं | मकानों में जलती ट्यूब – लाइटों तथा बिजली के खम्भों में जलते बल्बों की
रोशनी में ये बौछारें रुई के फाहों जैसे दिख रही हैं ... सफ़ेद झक्क ! ... उड़ते हुए
बगुलों जैसी ! ... जैसे पानी को किसी महीन छलनी से छाना जा रहा हो ... बौछारों के
पीछे हर आकृति धुँधली – धुँधली !
हम लोग सड़क के किनारे एक टीन के शेड
में जाकर खड़े हो गए | टीन के शेड के सहारे बिजली का खम्भा लगा हुआ था , जिस पर
जलते बल्ब का उजाला हमारे आसपास था |
“ तुझे याद है वो दिन , जिस दिन अपन
दोनों क्लास छोड़कर छः वाला शो देखकर लौट रहे थे और तेज बारिश शुरू हो गई थी | ”
मैंने कहा |
“ और अपन लोग बारिश से बचने के लिए एक
पेड़ के नीचे खड़े हो गए थे और ... ” नरेश बोला |
“ लगभग एक घंटे तक खड़े रहे थे | बहुत
तेज बारिश थी उस दिन | ”
“ मेस में खाना भी नहीं मिला था | सारी
रात भूख से बिस्तर पर करवटें बदलते रहे थे , हॉस्टल के कमरे में | ” कहकर मैं हँसा
| नरेश भी थोड़ी देर तक हम हँसते रहे |
ऊपर रुई के फाहे अभी भी उड़ रहे थे |
“ उन दिनों हमारे मन में कितनी उमंगें
भरी हुई थीं | ” नरेश की हँसी थमी , तब बोला |
“ सुन्दर भविष्य की कल्पनाएँ और कुछ कर
गुजरने की चाह भी | ” मैंने कहा |
एकाएक नरेश की आँखों में चमक उभर आई |
मुझे याद आया कि ऐसी ही चमक उसकी आँखों में उन दिनों अक्सर उभरती थीं |
“ तुझे शुचि की याद है या भूल गया ? ”
कहते हुए मैं होल से मुस्कराया | **
( इससे आगे की कहानी भाग - 2 में पढ़ें )
- पवन शर्मा
जुन्नारदेव , जिला –
छिंदवाड़ा ( मध्यप्रदेश )
फोन नम्बर –
9425837079
Email – pawansharma7079@gmail.com
संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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