जीना सीखा है
सस्ताई में महँगे का भी सौदा करना सीखा है,
जमीं पे नीड़ बना मैंने अंबर में उड़ना सीखा है
अब जीने की आदत को तू भले भुलाना चाहे जिंदगी,
उठकर गिरना,गिरकर उठना, पर बस बढ़ना सीखा है।
आँखों हँसती रही और आँसू को किया दफन पीछे,
दुत्कारा दुनिया ने भले, मगर अपनी नजरों में ना गिरा नीचे,
सच्चाई से ना हटा कदम झूठे वार भी सहे कई बार,
झुका ना पाए कोई तूफ़ाँ बना ना पाए कभी लाचार,
फौलाद लिए हाथों ने सदा पत्थर को गढ़ना सीखा है,
सागर की गहराई से जिंदगी पर्वत पर चढ़ना सीखा है।
पता नहीं क्यों इस जमाने में सदा दिखी चतुराई है,
बहुत संभलकर रिश्ते बाँधे पर सबको लगी निठुराई है,
कुछ खेमों की किस्सागोई बिसात मेरे जीवन में रच गई,
ऐसा लगा जैसे कलियुग के ठेकेदारों की महफ़िल सज गई,
आज अपने नहीं अपनों के लिए थोड़ा सा डरना सीखा है,
हाँ! शत्रु नहीं कोई पर थोड़ा खुद से भी लड़ना सीखा है। **
- नेमीचंद मावरी " निमय "
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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