( कवि श्रीकृष्ण शर्मा
के नवगीत - संग्रह
- '' एक अक्षर और '' से लिया गया है )
गुलाब के काँटे
आज फिर चुभ रहे हैं ,
मेरी इन आँखों में
गुलाब के काँटे |
कितने प्रयत्न किये हैं मैंने
कि उनके चमकीले और सुर्ख
रंग
न आयें मेरे दृष्टि – पथ
में ,
पर सभी प्रयत्न व्यर्थ गये
हैं मेरे |
और आज फिर चुभ रहे हैं ,
मेरी इन आँखों में
गुलाब के काँटे |
वृंत से तोड़कर
नोंच डाला है मैंने
शरारत से चमकते
उनके भोले और मासूम चेहरों
को ,
ता कि –
निर्वासित होकर
खुशियों के देश से वे
मर जायें धीरे – धीरे
और फिर जन्म न ले सकें |
लेकिन आज फिर चुभ रहे हैं
मेरी इन आँखों में
गुलाब के काँटे |
अंत में विवश होकर
बदल डाला है स्वयं को मैंने
उलट लिया है अपने मस्तिष्क
को ही
जिनसे अब
सौंदर्य कुरूप दिखाई देता
है मुझे
अच्छाई नजर आती है बुराई
और तमाम विसंगतियाँ
लगती हैं संगत मुझे |
लेकिन फिर भी
शायद ऐसे ही किन्हीं क्षणों
में
जब चुक जाती हैं मेरी समस्त
शक्तियाँ
और अपने ऊपर नियंत्रण नहीं
रहता मेरा ,
तब महसूस होता है मुझे
कि अब बन चुका हूँ मैं
अपना ही विद्रूप |
और तब
गुलाब के वही शरारती और
मासूम चेहरे
पहले से भी और अधिक चमकदार
होकर
झाँकने लगते हैं
इन आँखों में मेरी |
और आज फिर चुभ रहे हैं ,
मेरी इन आँखों में
गुलाब के काँटे | **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
सुन्दर और सार्थक रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद
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