( 'काव्य-सुमन 'से )
सोचने से दर्द घट सकता नहीं
सोचने से दर्द घट सकता नहीं
सोचने से दर्द घट सकता नहीं !
सोचने से दर्द जा सकता नहीं !
इसलिए तुम सोच के सागर में
क्यों डूबे हुए हो ?
कब तलक पोंछोगे अपने आस्तीनों से ये आंसू ?
इस तरह से आंसुओं का वेग रुक सकता नहीं |
सोचने से दर्द घट सकता नहीं !
द्वार तुमने बंद कर रखें हैं मन के |
किस तरह से रोशनी खुशियों की चमके ?
द्वार मन के तुम ज़रा से खोलिए ,
फिर तो खुशियों की किरण से ,
मुस्कराहट में इजाफा कम हो सकता नहीं |
सोचने से दर्द घट सकता नहीं !
जिंदगी के शोरगुल से इस तरह न ऊबिये ,
उसको अपने मन के दर्पण में सजाकर देखिये |
फिर अकेलापन कभी पास आ सकता नहीं ?
सोचने से दर्द घट सकता नहीं !
आइये कुछ बैठकर बातें करें ,
कुछ सुने मेरी व कुछ अपनी कहें |
इस तरह जब सिलसिला बातों का होगा ,
फिर तो सपनों का नया संचार होगा |
वरना दर्दे धुंध छंट सकता नहीं |
सोचने से दर्द घट सकता नहीं !
इस तरह मायूसियत अच्छी नहीं ,
इससे तो गम की घटायें चूं पड़ेगी
और फिर तो सोच के सागर में तुमको ,
डूबने से कोई रोक सकता नहीं |
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