( प्रस्तुत लघुकथा – पवन
शर्मा की पुस्तक – ‘’ हम जहाँ हैं ‘’ से ली गई है )
विभाजन
समझ नहीं पाता मैं |
पिताजी क्यों चिंतित रहते हैं ? खुद को अकेला और असहाय समझते हैं | इस बीच माँ ही एकमात्र सम्बल रहती हैं उनके लिए | उधर बड़े और छोटे चाचाजी की हमेशा गुप्त मीटिंग होती रहती है , या फिर कभी - कभार पिताजी के साथ बैठते हैं तो हल्की - सी झड़प होती रहती है | आज फिर दोनों चाचा पिताजी के सामने बैठे हैं | पिताजी ग़मगीन हैं , कुछ सोचते हुए - से |
समझ नहीं पाता मैं |
' तुम लोग ऐसा मत सोचो , नहीं तो गाँव भर में बदनामी होगी कि बाप को मरे एक माह भी नहीं हुआ कि इस घर में ऐसा हो गया | ' पिताजी कहते हैं |
' तुमने तो एक ही बात की रट लगा ली है और हमेशा यही कहते हो | हमें तो हमारा हिस्सा चाहिए और कुछ नहीं | ' बड़े चाचाजी ने कहा |
' ... और आज हमने फैसला किया है कि हम अपना हिस्सा ... | ' छोटे चाचाजी बोले |
' उफ़ ... ! ' पिताजी लम्बी साँस खींचते हैं |
कैसा हिस्सा ? क्या माँग रहे हैं यह लोग ? समझ नहीं पाता मैं |
' तुम समझने की कोशिश करो| इसका दूसरे लोग फायदा उठाएँगे | '
' कुछ भी हो | हमें हमारा ... | ' दोनों चाचा एक स्वर में बोले |
' ... तो फिर इस घर के ही क्यों ... मेरे भी टुकड़े - टुकड़े करके आपस में बाँट लो तुम लोग | ' पिताजी की आवाज मुझे पिघलती हुई - सी लगी |
मेरे जी में आया कि दहाड़ मारकर दोनों चाचाओं को भगा दूँ | अब मैं समझ रहा हूँ कि हिस्सा क्यों होता है !
- पवन शर्मा
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