( कवि श्रीकृष्ण शर्मा
के काव्य - संग्रह
- '' अक्षरों के सेतु '' से ली गई , 1966 में रचित रचना )
तुम बिन अधूरा मैं !
ओ मेरे परिचय ,
मैं तुमसे बिछुड़ करके
बन गया स्वयं को ही
आज एक अजनबी हूँ !
मेरे दृग ,
दृष्टि की तुम्हारी
परिधियों से
दूर हुआ मैं
सब कुछ देख कुछ न देखता |
ओ मेरे स्वर ,
तुमसे वंचित मैं आज यहाँ
सब कुछ सुन रहा
मगर कुछ न सुनाई पड़ता |
शब्दों का बोझ लिये
मैं अब भी शब्दहीन
- अर्थ नहीं बन पाया |
आत्मलीन होकर भी
भावों के अँधियारे
गलियारों के उन
गुलाबों की छवि को मैं
इस क्षण तक
अपने इन गीतों के रेशम में
- बाँध नहीं पाया |
अब भी –
अतीत के
वे बिम्ब पारदर्शी सब
तुमने जो
मेरे इन प्राणों पर छोड़
दिये
- बेहद ही उजले हैं ,
उनके वे रंग
अभी धुँधले पड़े नहीं !
हरदम –
वे पगडंडी ,
सीढ़ी के वे घुमाव ,
घर के कोने – अंतरे ,
आँगन की तुलसी ,
दीवारों के लेखचित्र ,
स्नेह – भरी आँखें वे ,
ममता से बढ़ी बाँह ,
आशंकित उत्सुकता ,
भार बना संयम ,
- वे सब कुछ हैं अब तक भी
मेरे सँग यहीं कहीं !
उन गुजरी राहों में
मेरा मन अटका है ,
और पाँव घिसट रहे
मौजूदा राहों में !
तुम बिन
मैं आधा हूँ
तुम बिन अधूरा मैं
कब तक यूँ भटकूँगा
लिए हुए एक समूचा जंगल
- बाँहों में ?
बार – बार मर कर भी
सिरजन की पीड़ा को
साँसों में ढोऊँगा ,
बीते के गालों पर
मुँह धर कर रोऊँगा ,
- मैं कब तक ?
कैसा ये खालीपन
कैसा ये भारी मन
मुझको जो अनुभावित
होता है प्रिय तुम बिन !
लगता है –
मन मैं कुछ
कहीं स्यात् टूट गया ,
जीवन का एक छोर
दूर कहीं छूट गया ,
जिससे अब भेंट नहीं
होगी शायद कभी ! **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई
माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
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