( प्रस्तुत लघुकथा – पवन शर्मा की पुस्तक – ‘’ हम जहाँ हैं ‘’ से ली गई
है )
यह पारी ही तो है !
अचानक पिताजी ने जाने की घोषणा कर दी , फिर उन्होंने अपना सामान समेटना प्रारम्भ कर दिया और एक छोटे बक्से में सामान सहेज - सहेज कर रखने लगे | ऐसा अक्सर ही होता है कि पिताजी एकाध माह रहकर जाने की अचानक घोषणा कर देते हैं | शुरू - शुरू में मैं चौकता था , पर अब कोई आश्चर्य नहीं होता | जब तक माँ थीं - पिताजी ने गाँव नहीं छोड़ा था | तीन - तीन बहूँ - बेटे होने के बाबजूद वे माँ के साथ अकेले ही गाँव में रहते आए थे , किन्तु माँ के गुजर जाने के बाद वे तीनों बेटों के यहाँ कुछ - कुछ दिन रहकर अपने दिन बिताने लगे |
' तो क्या आज ही निकल जाएँगे ? ' मैने पूछा |
' हाँ ! ' पिताजी बोले |
' एकाध दिन और रुक जाते | '
' नहीं , अब नहीं रुकूँगा ... जाऊँगा ही ... काफी दिन रह लिया | '
' हाँ मंझला भी राह देख रहा होगा | ' मैं कहता हूँ |
' मँझले के यहाँ नहीं जाऊँगा ... सोचता हूँ कि अब गाँव ही निकल जाऊँ ... वहीँ रहूँ | '
' क्यों ? ' मैं चौंकता हूँ |
' अब जीवन के आखिरी दिनों में ये अच्छा नहीं लगता कि एकाध महीने रहकर तेरे यहाँ से मझले के यहाँ ... मँझले के यहाँ से छोटे के यहाँ ... और फिर से तेरे यहाँ ... जैसे एक पारी - सी बंधी हो ... | ' पिताजी कह रहे थे |
मैं चुप था...एक सन्नाटा खिंच आया था मेरे और पिताजी के मध्य |
**
- पवन शर्मा
------------------------------------------------------------------------------------------
आज का यथार्थ 👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद राज श्री जी |
ReplyDelete