( कवि श्रीकृष्ण शर्मा
के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से ली गई , 1965 में रचित गीत )
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारे से |
नीली - नीली लहर नींद की उठतीं - गिरतीं ,
अवचेतन मन की कितनी ही नावें तिरतीं ;
कुण्ठाओं के कमल खिले हैं -
सपनों जैसे |
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारे से |
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का ,
काला बादल चमगादड़ - सा उल्टा लटका ;
शंख - सीप नक्षत्र रेत में -
हैं पारे - से |
साँझ - सुबह के मध्य - अवस्थित झील रात की
भरी हुई है अँधियारे से |
नंगी नहा रहीं प्रकाश की लाख बेटियाँ ,
तट पर बैठीं बाथरूम नायिका झिल्लियाँ ;
खग चीखे -
वह डूब रहा है चाँद ,
बचा लो
गहरे में से |
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की
भरी हुई अँधियारे से | **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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www.shrikrishnasharma.com
संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (24-04-2020) को "मिलने आना तुम बाबा" (चर्चा अंक-3681) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
आपने इस पोस्ट को चर्चा के लिए चुना है , इसके लिए बहुत - बहुत धन्यवाद |
ReplyDeleteवाह |बेहतरीन सृजन आदरणीय सर
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं आपने।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteआप सभी ने ये गीत पसंद किया , इसके लिए आप सभी का ह्रदय से आभारी हूँ | धन्यवाद |
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ReplyDeleteमंच की चर्चा में आपकी उपस्थिति और आपके अनमोल आशीर्वचनों से मेरा मान बढ़ा । सादर आभार सर 🙏🙏
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