( कवि श्रीकृष्ण शर्मा
के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है )
मैं विभोर हूँ प्राण !
बन्द किये मैंने दरवाजे हारकर ,
तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर !
दूरी की सारी सीमाएँ जीत लीं ,
किसी विहग के आकुल मन के गीत ने |
वर्तमान की धरती पर अब पग धरे ,
फिर से मेरे भूले हुए अतीत ने |
याद , नयन में सागर भर तुमने कहा -
' मेरी सुधि को रखना तनिक सँवार कर !
बन्द किये मैनें दरवाजे हार कर ,
तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर !
दिन - जैसा न लगाव रहा है छाँह का ,
जो समीपता छोड़ साँझ को बढ़ चली |
खड़ी अपरिचय की रेखा पर किन्तु ये
उजली - उजली धूप साँवली पड़ चली |
किन्तु सान्ध्य - तारा की छाया - कृति बना ,
दिया जल रहा खण्डहर हुई मजार पर !
बन्द किये मैने दरवाजे हार कर ,
तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर |
प्राण , तुम्हारी साँसों की गर्मी लगी ,
उड़ता था बेपंख समन्दर व्योम में |
हुआ तुम्हारे जीवित स्पर्शों से मिलन ,
कितने स्वर्ग बस गये थे हर रोम में |
वह सुहाग का चाँद , कुँआरी चाँदनी ,
तिरी तुम्हारे यौवन की मझधार पर !
बन्द किये मैनें दरवाजे हार कर ,
तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर !
दिन बेमालुम गया तुम्हारी याद में ,
गीत सुबह के मैंने गाये शाम को |
आज स्वयं में ही इतना डूबा हुआ ,
सुनता हूँ , पर समझ न पाता नाम को |
मैं विभोर हूँ प्राण , तुम्हारा स्नेह ले ,
फूल खिलाता बैठा हुआ अँगार पर !
बन्द किये मैने दरवाजे हार कर ,
तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर ! **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
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