( प्रस्तुत लघुकथा – पवन शर्मा की पुस्तक – ‘’ हम जहाँ हैं ‘’ से ली गई
है )
यथार्थ
सभी शांत हैं ...अम्मा , बाबूजी , सुनीता और पलंग पर लेटा सुरेश | गहरी समस्या है इनके सामने | शिरीष की माँ का ख़त आया है की आप लोग ' हाँ ' कह दें तो जल्दी ही मुहूर्त निकलवा लूँ , जिससे इस काम से मुझे मुक्ति मिल जाए |
' शिरीष जैसा लड़का अगर हाथ से निकल गया तो और लड़के मिलने मुश्किल हैं | ' बाबूजी ने कहा |
' अरे ! लड़के मिल ही कहाँ रहे हैं ... मिल भी रहे हैं तो पच्चीस - पच्चीस हजार की माँग करते हैं | शिरीष की माँ ने कहा है - देखो बहन मुझे लेना - देना कुछ है नहीं लड़की सुशील होनी चाहिए | मैनें कह दिया , हमारी सुनीता भी किसी लड़की से कम नहीं है ...और शिरीष ... शिरीष ... शिरीष ! जब देखो , तब शिरीष का गुणगान करते रहते हैं ये लोग | न जाने जाने कौन - सा जादू कर दिया है शिरीष ने इन लोगों के ऊपर |
' इसके हाँ कहने भर की देर है , उधर तो तैयार हैं | ' बाबूजी ने कहा |
' ऐसा करो ... कल तुम जाकर शिरीष की माँ से कह दो ... जल्दी मुहूर्त निकलवा लें | ' अम्मा ने बाबूजी से कहा |
' नहीं ... नहीं कहना है हाँ | मैं शिरीष से शादी नहीं करुँगी | ' सुनीता बोली और खड़ी हो गई |
' आख़िर क्यों बेटी ? ' अम्मा ने पूछा |
बाबूजी ने उसकी तरफ देखा ... सुरेश वैसे ही लेटा रहा |
' बस , यों ही ... पढ़ी - लिखी हूँ ...अपना अच्छा - बुरा समझती हूँ | ' सुनीता ने कहा , ' मैं आपसे सिर्फ़ एक बात पूछना चाहती हूँ अम्मा ... बिना नौकरी के शिरीष मेरा तथा अपनी माँ का पेट कैसे भरेगा ? ' ... माना कि वह अच्छा है ... खूबसूरत है ... खानदानी है | लेकिन अच्छाई और खूबसूरती से तो किसी का पेट भर नहीं जायेगा | कब तक अपने बाप के पैसों से घर का खर्च चलाएगा !... बस , इसी वजह से मैं शिरीष से शादी नहीं कर सकती अम्मा | ' कहकर सुनीता दरवाजा खोलकर अपने कमरे में चली गई |
... और एकदम सन्नाटा फैल गया | उसी सन्नाटे में अम्मा और बाबूजी वैसे ही बैठे रहे ... सुरेश वैसे ही लेटा रहा पलंग पर ... | आगे एक सच खड़ा था |
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- पवन शर्मा
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