( प्रस्तुत कहानी – पवन शर्मा की पुस्तक – ‘ ये शहर है , साहब ’ से ली गई है )
घटना
कॉफ़ी का घूँट भरने के बाद मिसेज पण्डित ने पूछा , '' ऐसी कौन से बात हो गई थी , जिससे तुम बॉस पर एकदम बिगड़ गईं और जोर - जोर से चीखने लगीं ? ''
'' वह मुझे घूर रहा था | '' वह बोली |
'' घूर रहा था | '' मेसेज पण्डित को आश्चर्य हुआ |
'' हाँ | ''
घूरने देती | '' मिसेज पण्डित हँसीं , वैसे अपना बॉस ऐसा नहीं है | बहुत शालीन है | तुम्हें ग़लतफ़हमी हुई होगी | ''
'' वही ... वही तो | '' वह अकबका गई |
'' अगर हम लोग नहीं पहुँचते तो तुम बॉस का मुँह नोंच लेतीं है न! '' मिसेज पण्डित फिर हँसी |
'' सचमुच नोंच लेती मैं | '' वह आवेश में थी |
कैफे - हाउस में गुलाम अली की गज़ल ' ... हमको अब तक आशिकी का , वो जमाना याद है ... चुपके - चुपके ...' मद्धिम आवाज में बज रही थी |
'' आपको मालूम है - बॉस की घूरती हुई गोल - गोल आँखें धीरे - धीरे चमकने लगी थीं , हिंसक भेड़िये की तरह | उसकी चमकती हुई आँखें मेरे सीने के उभारों पर थीं | ''
'' फिर तुम आतंक से ग्रसित होकर चीखने लगी थीं ... है न | ''
'' बिल्कुल सही | मैं आपे से बाहर हो गई थी - हमेशा की तरह | '' वह बोली |
दोनों के बीच में थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी पसर गई |
'' मुझे हमेशा लगता है कि आँखें अक्सर मुझे घूरती रहती हैं | '' उसने ख़ामोशी तोड़ी |
मिसेज पण्डित अपने दोनों हाथों की कुहनियों को मेज पर टिकाकर बोली , '' क्या कहा तुमने कि दो आँखें तुम्हें हमेशा घूरती रहती हैं | ''
'' हाँ - हाँ .. लगता है कि कोई मुझे घूर रहा है , पर कौन घूर रहा है - ये नहीं समझ पाती मैं | ''
'' इसमें इतना आतंकित होने की कौन सी बात है ? ''
'' पिछले कई दिनों से ... चमकती हुई आँखें ... उफ़ | '' धीरे - धीरे एक आतंक उसके चेहरे पर फिर से चिपकने लगा |
'' यह तुम्हारा भ्रम है | तुम किसी डॉक्टर को दिखाओ | '' मिसेज पण्डित ने कहा और कॉफ़ी का घूँट भरा |
'' पहले वहम लगता था , पर अब सब सही - अपनी कसम | '' वह तपाक से बोली |
'' ऐसा तुम्हें कब और कहाँ महसूस होता है कि तुम्हें कोई घूर रहा है | '' मिसेज पण्डित ने बात पलटते हुआ पूछा |
'' कभी भी ... कहीं भी ... कोई निश्चित समय नहीं ... कोई निश्चित स्थान नहीं | '' उसने कॉफ़ी का घूँट भरा , '' ऑफिस में ... सिटी बस में या लोकल ट्रेन में ... मार्केट प्लेस में भी ... घर में ही मैं अपने को सुरक्षित पाती हूँ | ''
'' तब कैसा महसूस होता है ? ''
'' ऐसा लगता है , जैसे कि चमकती हुई आँखें मेरे चेहरे को , मेरे होठों को , मेरे सीने और नितम्बों के उभारों को घूर रही हैं - बेहद सूक्ष्मता के साथ | तब शरीर में पैनी - पैनी और छोटी - छोटी सुइयाँ चुभती - सी महसूस होती हैं | ''
'' अजीब बात है | '' कहने के बाद मिसेज पण्डित ने कॉफ़ी का घूँट भरा |
एकाएक दूसरी टेबिल पर बैठे स्मार्ट लड़के को अपनी ओर देखता पाकर उसके चेहरे पर वही आतंक गहराने लगा | उसने मिसेज पण्डित से कहा , '' आप उस लड़के को देख रही हैं - वह मुझे ही घूर रहा है | ''
मिसेज पण्डित ने घूमकर उस लड़के को देखा , फिर कहा , '' मैं फिर कहती हूँ कि ये तुम्हारा वहम है | ''
'' अब उसकी आँखों में चमक आ गई है | '' मिसेज पण्डित की बात अनसुनी कर वह कहती है |
मिसेज पण्डित चुप रहीं |
'' यही चमक तो मुझे आतंकित करने लगती है | धीरे - धीरे ये चमक लाल - लाल और गढ़े खून में तब्दील हो जाती है | ''
'' मैं फिर से कहती हूँ कि ये तुम्हारा वहम है | ''
'' उसके घूरने से मेरे शरीर में सुइयाँ चुभने लगी हैं | ''
'' डोंट वरी ... तुम उधर मत देखो | '' मिसेज पण्डित ने कहा |
उसने कॉफ़ी का घूँट भरा |
'' अब कैसा फील कर रही हो ? '' मिसेज पण्डित ने पूछा |
'' नॉर्मल | ''
'' तुम ऐसा कब से फील कर रही हो ? '' मिसेज पण्डित ने जब उसे सामान्य होते देखा , तो पूछा |
'' कई दिनों से | पहले भी कहा था |
'' तुम्हें कोई कारण समझ में आता है ? ''
वह चुप रही |
'' और उस घटना का असर अभी भी तुम्हारे मस्तिष्क में बना हुआ है | इसी वजह से तुम एबनोर्मल हो जाती हो | '' उसे चुप देख मिसेज पण्डित ने कहा |
'' शायद | '' अबकी बार वह बोली |
'' शायद नहीं - निश्चित ही | '' मिसेज पण्डित बोली , '' वही घटना तुम्हें हमेशा आतंकित किए रहती है | ''
'' समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ ? ''
मिसेज पण्डित बोली , '' तुम उस घटना को याद करने की कोशिश करो और डॉक्टर की सलाह लो | ''
'' कोशिश करुँगी | अभी तो याद नहीं आ रही है | '' अब वह नॉर्मल हो गई थी |
बैर कॉफ़ी का बिल ले आया | बिल चुकाकर दोनों कैफे - हाउस से बाहर निकल आईं | शाम का धुंधलका होने लगा | सड़क के किनारे बिजली के खम्भों पर लगे हैलोजन बल्ब जल उठे | चारों तरफ शहर की चमकीली रोशनी ! ... रंग - बिरंगे रंगों में ... लाल , पीली , नीली , गुलाबी , दुधिया रोशनी !
सड़क पर चलती मिसेज पण्डित बोलीं , '' आज काफी देर हो गई | बच्चे चिन्ता कर रहे होंगे | ''
वह मुस्करा पड़ी | बोली कुछ नहीं |
जब वह घर में घुसी, तब अँधेरा गाढ़ा हो गया था|उसे देखते ही माँ बोली, '' आ गई बेटी | ''
'' हाँ ''
भीतर से उसके पिता आ गए और सोफे पर बैठ गए | उसके पिता कम बोलते हैं |
'' चाय बनाकर लाती हूँ | '' माँ ने कहा और किचिन में चली गईं |
वह अपने पिता के सामनेवाले सोफे पर बैठ गई और बैक पर अपना सिर टिका दिया |
एकाएक उसकी नजर दिवालघड़ी पर पड़ी | पौने आठ बज रहे हैं | रोज साढ़े पाँच बजे तक ऑफिस से घर लौट आती है | कभी देर हो जाए तो उसके पिता चिन्ता करने लगते हैं |
माँ चाय बनाकर ले आई | उसने कप थामा और चाय के घूँट भरने लगी |
उसके पिता अख़बार पढ़ने में तल्लीन थे | शासकीय नौकरी से सेवानिवृत पिता साहित्यिक कर्म से जुडे हुए थे और आज - कल लिखने पढ़ने में अधिक व्यस्त रहते हैं | कभी - कभी आम पिताओं की तरह कई - कई चिन्ताओं में डूब जाते हैं - जैसे उसकी शादी न हो पाने और उसके छोटे भाई राकेश के नौकरी पर न लग पाने जैसी चिन्ताओं में डूबना |
उसने चाय का घूँट भरा |
माँ भी बैठी हुई हैं - पिता के बाजूवाले सोफे पर |
'' गुड्डू आया हुआ है | '' माँ ने कहा | वह चौंक गई |
( शेष भाग - 2 में )
- पवन शर्मा
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