( कवि श्रीकृष्ण शर्मा
के नवगीत - संग्रह
- '' एक अक्षर और '' से लिया गया है )
इस बरामदे में
कुर्सी पर मैं एकाकी
बैठा खुद की गढ़ी हुई सीमा में
बंदी मुझे बनाये हैं बाँसों की बाढ़
खड़ी हुई है मुझे घेर कर
- खपच्चियों से निर्मित ये दीवार |
मैं बैठा
पर इसके पार राह चलती है
चहल - पहल है , भीड़ - भाड़ है , कोलाहल है
मुझसे परे
- सभी की एक अलग बस्ती है
देख रहा हूँ मैं नितांत अजनबी - सरीखा
- भाव रहित सा
असम्प्रक्त जो किये जा रहा मुझको
- सबसे औ ' बाहर से -
वह मेरा व्यक्तित्व अहम् है
मेरे पिछले अभ्यासों से खचित
- अलक्षित लक्ष्मण - रेखी तार |
जब - तब शायद आकर्षित हो
या कि प्राप्त परिचय करने को
अथवा मेरे आश्रय में मन बहलाने को
या अपने विद्रोही जीवन का सूना एकांत मिटाने
औ ' मुझसे दुलार पाने को -
कोलाहल से भाग
असम्बंधित स्वर मुझ तक आ जाते हैं |
और अपरचित वे
मेरे गम्भीर मौन के सम्मुख
बच्चों जैसे नहीं ठहर पाते हैं ,
निस्सहाय आस्था - हारे - से वे बेचारे
मनमारे डगमग गति से फिर
उल्टे पाँवों मुझसे दूर चले जाते हैं |
बहुत चाहता हूँ मैं -
उनसे बात करूँ कुछ
आशा के औ ' विश्वासों के भाव भरूँ कुछ ,
उन्हें आवाज लगा कर रोकूँ
मैं न उन्हें ऐसे जाने दूँ |
पर मिथ्या अभिमान बड़प्पन आड़े आता
कुंठाएँ रच मूक बनाता
और ' और ' फिर झूठी लाचारी का एक बहाना
लेकर
अनटेरे ही रह जाता हूँ
- मैं बैठा इस पार |
ये वैयक्तिकता का झूठा पाश
कि ये कच्चा आश्वासन
ढह जाता आधारहीन - सा बिना नींव - सा
जब मेरे अनजाने ही
घुस आता है भीतर सूनापन ,
अट्टहास करने लगता है
मुझे घेर कर जहरीला तम
गूँगी छायाओं का होने लगता नर्तन |
जाने किस अनचीन्हे भय से
हो जाता है मुर्च्छित - सा मन ,
- उस अथाह में मेरी ये सम्पूर्ण चेतना डूबी जाती ,
- मेरे प्राण पोर में आते ,
- आत्मा बहुत - बहुत घबराती ,
- मेरी चीख़ हाय , अनजन्मी ही मर जाती |
हे प्रभु !
यह कैसी विपत्ति है
यह कैसा मेरा निष्कासन
जीवन के सौ - सौ रंगों से
यह कैसा मेरा निर्वासन ?
केवल अतल - अछोर - भयावह
अँधियारे का ज्वार ,
जीते - जी ही
मेरे औ ' जीवन के बीच दरार |
किन्तु
अचानक
कहीं पास ही कुत्ता रोया ,
- लगा कि जीवन मरा नहीं है ,
अनस्तित्व के क्षण में भी
है वह अपना अस्तित्व बचाये ,
मुझको यह अहसास हुआ -
- कुत्ता यह चाहे
किन्तु एक प्राणी तो है यह ,
- भले रुदन ही सही ,
मगर जीवित प्राणी की वाणी तो यह |
इसके स्वर ने ही तो -
मुझको है अथाह शून्य से बचाया ,
अनजाने भय से यह मुझको बाहर लाया ,
मेरी दुर्बलताओं को बल दिया ,
टूटती आस्थाओं में प्राण जगाया |
लगा
कि मैंने मर कर
फिर यह जीवन पाया
इस स्वर से ही |
इसीलिए
आभारी हूँ मैं
इस स्वर के प्रति ,
- भले यह व्यथित - आशंकित - भयग्रसित
करुण चीत्कार |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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www.shrikrishnasharma.com
संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
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