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13.2.20

कुमार रवीन्द्र - ' एक नदी कोलाहल ' : भीतर भी - बाहर भी ( भाग 3 )


कुमार रवीन्द्र - ' एक नदी कोलाहल ' : भीतर भी - बाहर भी 
( भाग - 2 से आगे )

               जरा देखो तो - 
               ' नहा रही गौरैया / खेतों / लोट रहा है गदहा / रेतों 
               मुरझे हैं चेहरे पातों के / जंगल धूलभरे 
               फटी किनार लिए है / हाथों / नदी अभागिन है /
               बरसातों 
               उफ़ , किस जालिम ने हड़का कर /
               जलधर किये परे ? '
          ऐसे में कवि करे तो क्या करे | दुरूह और दुर्वह विसंगतियों की इस यात्रा में वह केवल दूर से चेतावनी भरी गुहार ही दे सकता है -
               ' यों मत दौड़ो / गिर जाओगे 
               गिरे अगर तो पीछे आते / पाँवों - तले कुचल जाओगे 
               कीचड़ में धरती लथपथ है / पता न फँसे /
               कहाँ पर रथ है / संभले अगर न / कर्ण - सरीखे /
               समर - मध्य मारे जाओगे / षड्यंत्रों में / चक्रव्यूह हैं /
               कृत्या / अभिशापित रूह हैं '
          पौराणिक संकेतों में दी यह चेतावनी कितनी निष्प्रभाव है , कितनी निरर्थक है , यह भी कवि को पता है , क्योंकि उसे यह भली - भाँती एहसास है कि  ' खुद हम अपशकुनी ख़त / जिनके कि फटे कोने | '  इन खतों को पढ़े भी कौन , क्योंकि  
               ' पका मोतियाबिंद / धृतराष्ट्र हुआ हिन्द 
               शंखध्वनि  दूर / पार्थ द्वारा ' 
          की अनुभूति ही युग की एकमात्र यथार्थानुभूति है | निष्प्रयोजन और आशययुक्त होकर जीना ही आज की नियति है |
          मिथकों की उदभावना कथ्य को अधिक सार्थक - सक्षम करने और कहने को और पैनाने के लिए प्रचुर मात्रा में हुई है | लगभग सभी नवगीतकारों ने पौराणिक आख्यानों और मिथकों के माध्यम से अपने कथ्य को एक प्रतीकात्मक भंगिमा और मिथकों के माध्यम से अपने कथ्य को एक प्रतीकात्मक भंगिमा और क्लासिक गरिमा प्रदान की है | नवगीत की मिथकीय मुद्रा आज की कविताओं की एक सार्थक उपलब्धि है | भाई श्रीकृष्ण शर्मा ने भी ' एक नदी कोलाहल ' के गीतों में पौराणिक मिथकों के इंगित देकर उनकी अर्थवत्ता का सर्वांगीण सर्वकालिक विस्तार किया  है | आज के वक्त की दीवाली की एक ऐसी मिथकीय मुद्रा देखें -
               अब न दीवाली , निशि - दिन अब / धृतराष्ट्र व गान्धारी
               और हस्तिनापुर में है / दुर्योधन की पारी 
               जिनकी खातिर भीष्म - कर्ण ने शंख उठाये थे 
               तुमने दिवाली पर दीपक खूब जलाये थे 
               बचकर रहना शकुनी की तुम / घातक चालों से 
               अभिमन्यु के वधिकों औ ' / लाक्षागृह वालों से 
               मारो , ज्यों न भीम से अन्यायी बच पाये थे 
               तुमने दीवाली पर दीपक खूब जलाये थे | '
         बाजों की दहशत में / चिड़िया जिए हुए ' इस आदमखोर समय में -
               ' लाक्षागृह की / आग रही है मन में जी 
               शापग्रस्त घाटी में / सब पग दिये हुए '
          ' सुबह - शाम घुटती रही / शापित जिन्दगानी '  के त्रासक एहसास में शामिल हैं -  ' स्वप्न तक में कच के लिए / व्यथित देवयानी ' और  ' हृदयघात - पीड़ित ये / साँसें शाहजहाँनी | '  ऐसे में कवि का यह प्रश्न एकदम मौजूँ है  -
               ' आदमी प्रसुप्त / ... और / मृत है अपनत्व 
               ऐसे में / आस्था को कब तक जगायें ? '
          ' होरी - सा बुझा हुआ बैठा ' शीर्षक गीत में .... 

                                                            ( आगे का भाग - 3 में )

                           - कुमार रवीन्द्र 
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
    
           

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