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14.2.20

कुमार रवीन्द्र - ' एक नदी कोलाहल ' : भीतर भी - बाहर भी ( भाग - 4 )


कुमार रवीन्द्र - ' एक नदी कोलाहल '  : भीतर भी - बाहर भी 
( भाग - 4 )

' होरी सा बुझा हुआ बैठा ' शीर्षक गीत में ऐतिहासिक - साहित्यिक बिम्बों का मिथकीय संयोजन पूरे गीत को एक नई अर्थवत्ता से भर देता है -
               ' भीड़ में मिले हम दोनों / कह नहीं सके जो था कहना 
               फिर एक बार जो बिछुड़े तो /
               खो गया कहीं मन का लहना '
                                       ( संदर्भ : चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ' उसने कहा था ' )
               ' रंगों ने चाहा बहलाना / रूपों ने चाहा उलझाना 
               पर बाबर जैसा रहा मुझे / फिर समरकन्द औ ' फरगाना '
                                                       ( संदर्भ : बाबरनामा , ऐतिहासिक )
               ' इच्छाएँ सारी ज़िबह हुई / सब सपने भुने काढावों में 
               होरी - सा बुझा हुआ बैठा / तुम बिन ना आग अलावों में '
                                                      ( संदर्भ : प्रेमचंद का ' गोदान ' )
          वैयक्तिक विरह - व्यथा और बिछुड़न की पीर कैसे विस्तार पा गई है इन मिथकीय भंगिमाओं से , देखने - समझने की बात है | ऐसी ही गहन अभिव्यक्ति व्याप गई है निम्न पंक्तियों में , जो प्रकटतः व्यक्तिगत लगती है - 
               ' बन्धु मेरे / तुम बिना पिघले नहीं / मेरे अँधेरे 
                                        000
               ढले काँधे / विन्ध्य जैसा बोझ लादे 
               मर गये संघर्ष में / पुख्ता इरादे 
               छिने मौरूसी हक़ों वाले / हमारे स्वर्ण डेरे / बन्धु मेरे ! /
और भी -
               ' साँसत में / साँस / और गूँगे आश्वासन 
               अंधी - बधिर सभा है / कौन सुनेगा / रोदन ?
               करुणा गप है / सच कहना / क्या चीर बढ़ेगा ? '
          भाई श्रीकृष्ण शर्मा  का अनुभव संसार अत्यन्त विशद है , इसी से उनके बिम्ब एकदम सटीक यथार्थवादी भंगिमा बड़ी सहजता से प्राप्त कर लेते हैं और उनकी आदिम उर्जा भी बरक़रार रहती है | देखें व्यक्ति और समष्टि को एक - एक समेटती निम्न पंक्तियाँ -
               ' ठीक बाहर / या कि मेरे ठीक भीतर 
               एक मुर्दा जिन्दगी / औ ' शहर उजड़ा 
               ख्वाब में / डर से निकलती चीख़ 
               लगता हो गईं हैं अधमरी साँसें 
               धँसे हैं रक्त - प्यासे ड्रेकुला के दांत 
               खुलते जा रहे हैं देह के गाँसे 
               हो रही इन ठोकरों में / हैं कपाल - क्रिया 
               मैं फिर भी नहीं सपड़ा '
          और अंत में ' बुझना मत / साँसों की लपटें / रखना अक्षत / दुविधा में रहना मत ' जैसे क्रांतिधर्मी तेवर के कुछ आस्तिक आस्था के उद्बोध नात्मक गीत | इन गीतों का आदमी -
               ' मुश्किलों से लड़ रहा है / गढ़ रहा है एक दुनिया 
               और अपने पाँव रख जो / मौत के सिर पर खड़ा है '
यही आदमी 
               ' ... आफतों की बाँह थामे 
               ज्योति के अन्तिम क्षणों तक / झिलमिलाता है 
               स्वयं ही देख लो 
               नक्षत्र उजली आयतें लिखकर / अँधेरे में ढला कैसे ? '
          कवि का मानना है - ' अग्नि - पथ में / सिर झुका कर बैठने से / क्या भला होगा ? ' किन्तु इस ' दुर्वासा - हताशा ' को अधिरज के गल - घोंटने से कुछ नहीं होने वाला | इसके लिए तो कवि का कहना है -
               ' खून है तो / तिलक जैसा / माथ पर ले ले 
               आग है तो / आरती - सी / हाथ पर ले ले  
               दायरे में / व्यर्थ चुप - चुप ऐंठने से / क्या भला होगा ? '
          नवगीत का यह जो सात्विक तेवर है , इसी से मानुषी आस्था का पुनर्जन्म होगा | भाई श्रीकृष्ण शर्मा इसी तेवर को जागृत करने , जिन्दा रखने का उपक्रम  ' एक नदी कोलाहल ' के माध्यम से करते हैं | यही इन गीतों की विशिष्ट उपलब्धि है | नवगीत के हर पड़ाव और नवगीत के हर संस्कार से परिचित इस अग्रज गीतिकवि को मेरा शत - शत नमन ! प्रभु से प्रार्थना भी कि उनके अन्तर्मन से उपजी  ' एक नदी कोलाहल ' शत - शत धाराओं में नये - नये तटबंधों को छूती हुई निरन्तर प्रवाहित होती रहे |

                                  - कुमार रवीन्द्र 
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
     
   
     
               

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