( प्रस्तुत
कविता- पवन
शर्मा की पुस्तक -'' किसी भी वारदात के बाद '' से ली गई है )
तन्दूर
( 1 )
सचमुच
तुम्हारे नाख़ून बहुत पैने हैं
किसी के भी वक्षस्थल को
चीर सकते हैं
गर्म लहू पी सकते हैं
मैं हवा में बात नहीं कर रहा हूँ
तन्दूर को
बतौर सबूत पेश कर रहा हूँ |
( 2 )
तन्दूर से
उठती है - आग
तन्दूर से
उठते हैं - सवाल
तन्दूर से
उठता है - तूफान
यह माया जाल है सत्ता का
आग , सवाल , तूफान
उठाये जाते हैं
दबाये जाते हैं
सच - सच बताओ बन्धु !
आग , सवाल या तूफान
तुम्हारा पेट भर सकते हैं ?
( 3 )
ये सड़क सीधी
सत्ता के गलियारे तक जाती है
और अपने मोहपाश में कैद कर लेती है
अरे ! क्या कहा तुमने
तुम सूरज पाना चाहती हो ?
मैं सत्य कह रहा हूँ सखी
लाख कोशिश कर लो
तुम सूरज को पाना तो दूर छू भी नहीं सकोगी
इतना भी नहीं जानती
आख़िर तन्दूर बने क्यों हैं ?
( 4 )
नहीं बहा था खून किसी का
सड़क पर
आज की रात
भूना गया था गोश्त
तन्दूर की आग में
उड़ने लगी धूल
रेतीले रेगिस्तान में
अपनी संवेदनाएँ भुनाती
रैलियाँ / सभाएँ / भाषण / और
संसद में गरमागरम बहसें
इनमे
होना क्या है मित्र ?
जो कल हुआ
वही आज होगा
रैलियाँ / सभाएँ / भाषण / और
बहसों के बाद
हँसी / ठहाके
व्हिस्की / रम
मटन / चिकन
अरे ! अरे !
तन्दूर और गोश्त
कहाँ ? कहाँ ?
- पवन शर्मा
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