( कवि श्रीकृष्ण शर्मा
के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है )
अम्मा की याद में
चले गये सब चाचा के सँग ,
बचपन के चमकीले नव रंग |
पर अपनी किस्मत ले फूटी ,
अम्मा नहीं टूट कर टूटी |
हम भाई व बहिन की खातिर
हर विपदा को करती झूठी ||
न थीं चप्पलें , पाँव बिंवाई ,
सूनी आँखें , मुख पर झाँई |
चिन्ताओं से टूटी काया ,
ढलती उम्र , थकान गहराई ||
धन - सम्पत्ति न कोई पूँजी ,
मेहनत छोड़ , न आशा दूजी |
भूखे - अधभूखे रह जाना ,
कतर - ब्यौंत कर खर्च चलाना |
दुःख अपने , अपने अभाव थे ,
तकलीफ़ों के क्या बनाव थे ?
फिर भी अम्मा धीरज धर कर ,
हमें जिलाये थी मर - मर कर |
चिन्ताओं का छोर नहीं था ,
ध्रुव - रातों का भोर नहीं था ||
रोज जठर की आग बुझाना ,
तन ढंकना , ओढ़ना - बिछाना |
घर - आयों की खातिर करना ,
सामाजिक व्यवहार निभाना |
मुझे पढ़ा कर योग्य बनाना ,
बिटिया का भी ब्याह रचाना ||
बीमारी या आधी - व्याधी ,
खर्चे लम्बे , चादर आधी |
लेकिन हाथ नहीं फैलाया ,
चुप - चुप सारा बोझ उठाया ||
अपनी अम्मा धुनी बहुत थी ,
पढ़ी न थी , पर गुनी बहुत थी |
घर - बाहर की जग - जहान की
बातें देखी - सुनी बहुत थीं ||
अनुभव , दूरंदेश समझ थी ,
स्वाभिमानिनी , निडर , खरज थी ||
मुश्किल से ना हारी खायी ,
कामों में फुर्ती सुघरायी ;
लीपा - पोती , चौका - बासन ,
किस्से , गीत , ख़ुशी के प्राशन ||
समय पड़े पर आस - पास के ,
बुरे वक्त में साथ निभाना |
हारी बीमारी में सेवा ,
हिम्मत देना , धीर बँधाना |
अम्मा से सबको थी हिम्मत ,
हिम्मत से अम्मा को हिम्मत ||
मैं छह का था , बहिन तीन की ,
जब गुजरे थे चाचा अपने |
सूत कातकर , बोर बनाकर ,
अम्मा पाल रही थी सपने ||
पर इसमें गुजरान न होती ,
सोच - फिकर में रातें खोती |
आख़िर अपना मन पक्का कर ,
अम्मा निकली घर से बाहर |
सदगृहस्थ के घर में खाना ,
जाकर दोनों वक्त बनाना |
भले नौकरी , नहीं गिला था ,
आमद का नव स्रोत मिला था ||
बड़े अँधेरे अम्मा उठती ,
कामों को निबटाने जुटती |
नहा और धो पानी भरती ,
बहिना झाड़ू - पौंछा करती |
इसी बीच रोटियाँ बनाकर ,
खिला - पिला कर जाती अम्मा |
दुपहर एक - डेढ़ घंटे , फिर ,
आठ बजे तक आती अम्मा |
यों कडवे दिन बीत रहे थे ,
किसी तरह हम जीत रहे थे ||
सन पचास जैसे ही आया ,
सत्रह में दसवीं कर पाया |
हाथ हुए बहिना के पीले ,
घिर आये बादल करूनीले |
बहिन गयी , ले गयी हँसी सब ,
ममता लोहा बन पायी कब ?
गुजर रहे थे दिन ऐसे ही ,
पर खटती अम्मा वैसे ही |
अब मुझको अम्मा की चिन्ता ,
अम्मा को चिन्ता थी मेरी |
दुःख सहने में बज्जर छाती ,
पर गलती बर्फ़ीली ढेरी ||
इसी बीच बारहवीं कर ली ,
किन्तु नौकरी ने न ख़बर ली |
हाथ - पैर मारे बहुतेरे ,
नहीं भाग्य ने पर दृग फेरे |
औरों ने भी ज़ोर लगाया ,
पर न भँवर से बाहर आया |
उफ़ , ये कैसी लाचारी थी ,
कोशिश क़िस्मत से हारी थी ||
मैं उसका भावी सपना था ,
पर निकला सपना - सा झूठा |
समझी थी तम में उजियारा ,
पर मैं निकला तारा टूटा ||
हे विधवा , हर पग असफलता ,
हर पल विक्षत होती क्षमता |
यह सागर क्या पार न होगा ,
निकट सुबह का द्वार न होगा ?
इसी हताशा ने सब तोड़ा ,
अम्मा ने सबसे मुँह मोड़ा |
सदी बीसवीं का बावन सन
द्विबिस नवम्बर स्वर्गारोहण |
रहा देखता मैं विपिन्न मन ,
बिखर गया सब होकर कण - कण ||
अम्मा ने समझा था आशा ,
मुझे सहारा अच्छा - खासा |
पर मैं दे न सका पलभर सुख ,
देता रहा सिर्फ़ चिन्ता - दुःख ||
खटते - खटते बीत गया सब ,
भरते - भरते रीत गया सब |
पर ज्यों - का - त्यों था अँधियारा ,
सिमटा नहीं गर्दिशी पारा |
तप - तपकर हर साँस गुजारी ,
आँसू पर खारी - के खारी ||
एक न इच्छा पूर्ण कर सका ,
सच न कर सका सपना कोई |
मैं वसंत बनकर न हँस सका ,
जब मुझ पतझर पर तू रोयी ||
लगा कि मैं अयोग्य - अक्षम हूँ ,
हतचेतन अतिक्रमिक क़दम हूँ |
मेरा होना भी क्या होना ?
व्यर्थ निरर्थक लघुतम बौना ||
आज न तू , पर सुख का क्षण है ,
विगत समय ज्यों नीराजन है |
तेरे आशीषों का फल , जो
मरुथल ही अब नन्दनवन है ||
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
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