( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के काव्य -
संग्रह - '' अक्षरों के सेतु '' से ली गई 1966 की रचना )
साँझ : पुनरावृत्ति अतीत की
फिर साँझ :
अँधेरे का आयतन बढ़ा प्रतिपल ,
सूरज जुगनू - सा रेंग गया आँधियारे में
मिट गई अकेली बची एक लाचार किरन ,
- कुछ कसक गया मन में ,
- कुछ तन में कॉप गया |
दिन के कोलाहल में
न सुन पड़ा था स्वर जो
सुन पड़ा सौ गुना बड़ा कान में गूँज गया ,
- सौ गुना प्राण में गूँज गया ,
जो भीड़ - भाड़ के महासिंधु की गहराई में डूब था ,
- तिर आया है वह सूनापन ,
- मन का दुश्मन |
फिर साँझ :
दिवस की चहल - पहल को ठेल
उदासी घुस आई गलियारे में ,
औ ' बैठ गयी मेरे सम्मुख मेरे कमरे के द्वारे में ,
मेरा एकाकीपन बढ़कर हो गया और सौ गुना बड़ा
जिससे खोयापन और चिढ़ा ,
- कुछ खटक गया मन में ,
- शायद तन सूँघ अचानक साँप गया |
यह वर्तमान ,
हर क्षण अतीत में समा रहा ,
हर क्षण बीता पल और पास आ रहा ,
... पास आ रहा ... स्यात् यह दर्पण है ,
... यह दर्पण है ... गुजरे अतीत का ,
... उस अतीत का -
जब हमने - मैंने - तुमने -
मिल कर सपनों के शिशुओं को था जन्म दिया ,
सबकी आँखों से छिप - छिप कर पाला उनको ,
मन के उन कोमल टुकड़ों को
अपने स्नेह के सहज सपनीले मुखड़ों को
धड़कन में बसा लिया ,
- जी भर कर प्यार किया |
पर जाने कब
कैसे उनके तोतले भाव
हम दोनों के अनजाने ही
अस्फुट शब्दों में ध्वनित हुए ,
हम दोनों के अनजाने ही ,
जग की अभ्यस्त निगाहों ने
दो जीवित स्वर पहचान लिए ,
हम दोनों के अनजाने ही षड्यंत्र रचे ,
जब तक होते सतर्क तब - तक हम अलग किये ,
दुधमुंहे और मासूम स्वप्न - शिशु विलग किये |
सूने एकाकी प्रहरों में
उनके अबोध औ ' डूबे स्वर
कर पार समय की दूरी जब - तब आते हैं
- तब - तब मुझको बेहद उदास
- बेहद अनमना बनाते हैं |
फिर साँझ :
अतीतों के तन में
घुलता जाता है वर्तमान ,
दर्पण के सौ - सौ टूक प्राण में समा गये,
सुधियों के उस देश में छुटे शिशु - स्वप्नों के
कोलाहल - भीड़भाड़ - हलचल को धकिया कर
सौ गुनी शक्ति से स्वर कानों को गुंजा गये
- मेरा तन
बीते के आँचल में फस गया ,
- कुछ सिसक गया मन में
- स्मृतियों में खोया मैं |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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shrikrishnasharma696030859.wordpress.com
संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
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